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" सं. १५३२ वर्षे माश्विन मासे मंडपदुर्गचित्कोशे श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनभद्रसूरिपट्टपूर्वाचलालंकरणतरुणतरतरणिश्रीजिनचंद्रसूरिविजयराज्ये श्रीसिद्धान्तरुचिमहोपाध्यायशिष्यविजयसोमसाहाय्येन श्रीमालज्ञातीयठकुरगोत्रे सं० जयताभार्याहीमीसुतेन श्रीजिनप्रासादपतिमा आचार्यादिपदप्रतिष्ठाश्रीतीर्थयात्रासत्रागाराधगण्यपुण्यपरंपरापवित्रीक्रियमाणनिजजन्मना स्वभुजार्जितशुक्लद्रव्यव्यूहव्ययलेखितसकलश्रीसिद्धान्तेन सुश्रावक सं०मंडनेन पुत्रसं०खीमराज संजाऊ पु०वीना प्रमुखसकलकुटुम्बपरिवारवृतेन श्रीभगवतीसूत्र लेखितं श्रीपत्तने । वाच्यमानं चिरं नन्यात् ॥
इन के सिवा पं० पुण्यमूर्तिगणि, पं० लक्ष्मीसुंदरगणि, पं० मतिविशालगणि, पं० लब्धिविशालगणि और वा० रत्नमर्तिगणि आदि और भी अनेक विद्वान् शिष्य थे-जिन के नाम इस विज्ञाप्त. त्रिवेणि (पृष्ठ १५ और ६४ ) में दृष्टिगोचर होते हैं-परंतु उन के विषय में कोई ज्ञातव्य-वृत्तांत ज्ञात नहीं हुआ।
जिनभद्रसरि की एक पाषाणमय मूर्ति, जोधपुर-(मारवाड ) राज्य के खेड ढ के पास जो नगरगांव है वहां के जैनमंदिर के भनिगृह में स्थापित है। यह मति उकेशवंश के कायस्थकुल वाले किसी श्रावक ने ( नाम नहीं मिला ) संवत् १५१८ में बनवाई थीं।
+ जिनरंगसूरि के समय में ( सं. १७०१-२० ) पं. विनयवछभ की लिखी हुई पावलि में, जिनभद्रसूरि के १८ विद्वान् शिष्य लिखे हैं।
" तस्य अष्टादश शिष्याः श्रीसिद्धान्तरुचिपाठक-श्रीकमलसंय. मोपाध्यायादयो विद्वांसः । " .
+ भावनगर प्राचीनशोधसंग्रह, प्रथम भाग, ( संवत् १९४२ में मुद्रित ) पृष्ठ (परिशिष्ट ) ७१.
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