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________________ * शिष्य -समुदाय । ? जिनभद्र सरि का शिष्य समुदाय बहुत बड़ा और प्रभावशाली था। इन शिष्यों में से एक को, इन के पीछे, कीर्तिरत्नाचार्य ने पट्टधर बनाया था। यह शिष्य, जैसलमेर के चम्मगोत्रीय सा. वच्छराज और वाल्हादेका पुत्र था । इस का जन्म सं. १४८७ में हुआ था और १४९२ में, पाँचही वर्ष जैसी छोटी उम्र में, दीक्षा ली थीदी गई थी। आचार्यपद्वी सं. १५१४ के वशाखवदि २ को कुंभलमेर (मेवाडराज्य के अर्बलीपहाडी वाले प्रसिद्ध स्थान ) में, दी गई थी। ये पीछे से जिनचंद्रहरि चौथे ) के नाम से प्रसिद्ध हुए । इन का संक्षिप्तवृत्तांत पट्टावलि में इस प्रकार लिखा है । " श्रीजिनभद्रसूरिपट्टे जिनचन्द्रसूरिः, तस्य च जेसलमेरुवास्तव्य चम्मडगोत्रीय साह वच्छराजः पिता बाहादेवी माता सं० १४८७ जन्म, सं० १४९२ दीक्षा सं० १५१४ वैशाखवदिद्वितीयायां कुम्भलमेरु वास्तव्य कूकडाचोपडागोत्रीय साह समरसिंहकृतनंदिमहोत्सवेन श्री कीर्तिरत्नाचार्येण पदस्थापना कृता । ततोऽर्बुदाचलोपरि नवफणापाचनाथप्रतिष्ठाविधापक श्रीधर्मरत्नसूरिगुणरत्नसूरिप्रमुखानेकपदस्थापक श्रीजि. नचन्द्रसूरयः सं० १५३० जेसलमेरुनगरे स्वर्ग प्राप्ताः ॥" २-दूसरे प्रसिद्ध शिष्य श्रीकमलसंयमोपाध्याय थे । ये भी अच्छे विद्वान् थे। इन्हों ने सं. १४७६ में दीक्षाग्रहण की थी । संवत् १५१८ में, जिनचंद्रसरि, जिन का जिक्र ऊपर किया गया है की आज्ञा से पूर्वदेश में विहार किया था और चंपा, साकेत (अयोध्या ), कुंडपुर, काशी और राजगृह आदि तीर्थक्षेत्रों को यात्रा का थी। जिनसमुद्रसरि-जो जिनचंद्रसार के बाद पट्टधर आचार्य हुए थे और जिन्हें स्वयं जिन चंद्रसरि ने गच्छपति बनाया था-के आदेश से, इन्हों ने, १४००० श्लोक प्रमाण उत्तराध्ययनसूत्र पर टीका लिखी है। इस का संशोधन भानुमेरु वाचक ने किया है । यह सब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003389
Book TitleVignaptitriveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1916
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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