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________________ था । इस ने "धनद त्रिशती' नाम का एक ग्रन्थ राजर्षि भर्तृहरि की 'शतकत्रयी' का अनुकरण करने वाला लिखा है । प्रसंग न होने से मैं इन के विषय में विशेष-उल्लेख नहीं कर सकता तथापि इतना अवश्य कह देना चाहता हूं कि इन ग्रन्थों में इन का पाण्डित्य और कवित्व अच्छी तरह प्रकट हो रहा है। मंडन का वंश और कुटुम्ब खरतरगच्छ का अनुयायी था। इन भ्राताओंने जो उच्च कोटि का शिक्षण प्राप्त किया था वह इसी गच्छ के साधुओं की कृपा का फल था । इस समय, इस गच्छ के नेता जिनभद्रसूरि थे इस लिये उन पर इन का अनुराग और सदभाव, स्वभावतः ही अधिक था। इन दोनों भाईयों ने अपने अपने ग्रंथों में इन आचार्यकी भूरि भूरि प्रशंसा की है । धनद ने अपनी त्रिशती में लिखा है कि " चिन्तामणिः संप्रति भक्तिभाजां तपस्यया त्रासितदेवनाथः । दयोदयः प्रीणितसर्वलोकः सिद्धो गरीयाञ्जिनभद्रसूरिः । (नीतिधनदशतक, पद्य-९४।) मंडन के चरित विषय का जो काव्यमनोहर है उस में भी महेश्वर कवि ने लिखा है " जयत्यतः श्रीजिनभद्रसूरिः श्रीमालवंशोद्भवदत्तमानः । गम्भीरचारुश्रुतराजमानस्तीर्थाटनैः सन्ततपूतमूर्तिः ।। (काव्यमनोहर, ७ सर्ग, ३८ पद्य।) इन भ्राताओं ने जिनभद्रसूरि के उपदेश से एक विशाल सिद्धान्त-कोश लिखाया था । यह सिद्धान्त-कोश आज विद्यमान नहीं। पाटन के एक भाण्डार में-जो सागरगच्छ के उपाश्रय में संर १ यह प्रबन्ध बंबई के, निर्णयसागर-प्रेस की, काव्यमाला के १३ वें गुच्छक में छप चुका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003389
Book TitleVignaptitriveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1916
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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