________________
१२
“ सं० १४९० वर्षे चैत्रशुदि १० शनौ श्रीमति श्रीस्थंभतीर्थे श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनराजसूरिपट्टे श्रीजिनभद्रसूरिराज्ये सा० गूर्जरसुत सा० घरणाकेन सत्तरीवृचिर्लिखापिता । पु० हरीयाकेन लिखितं । शुभं भवतु ।
"
(Professor P. Peterson's, Fourth Report, Page 130.)
+ कविवर मंडन और धनदराजका ग्रंथागार | ॐ
अनेक कोट्यधीश अलंकृत करते थे । श्रावक न था । जो
मालवे का मांडवगढ़ ( मंडप दुर्ग ) इतिहास - प्रसिद्ध स्थान है । यह शहर औरंगज़ेब के समय तक तो बड़ा आबाद और मशहूर था परंतु आज तो इस की वही दशा है जो गुजरात के गंधार-बन्दर की है | मॉडव या मॉडू जिस समय उन्नति के शिखरपर चढ़ा हुआ था उस समय वहां पर जैनधर्म की भी वैसी ही दशा थी । उस समय वह जैनधर्म में मालवे का केन्द्र गिना जाता था । बड़े बड़े धनाढ्य और सत्तावान् जैन वहां पर रहा करते थे । कहते हैं कि वहां पर जैनों की कोई एक लक्ष से अधिक संख्या थी । और सेंकडों लक्षाधिपति जैन इस शहर को जन - श्रुति है कि इस शहर में एक भी गरीब कोई बाहर से दारिद्रय-पीडित जैन आता था तो शहर के अच्छे अच्छे श्रीमान् एक एक रूपया, उसे सहायतार्थ देते थे । इन श्रीमा नों की इतनी संख्या थी कि जिस से सहज में वह आगन्तुक दरिद्र अच्छी संपत्ति वाला बन जाता था ! जैन इतिहास के देखने से पता लगता है, कि मंत्री पेथड झाँझण, जावड, संग्रामसिंह आदि अनेक श्रावक यहां पर हो गये हैं जो विपुल - ऐश्वर्य और प्रभूत-प्रभूता के स्वामी थे । इस प्रकरण के सिरे पर जिन दो भ्राताओं का नाम लिखा हुआ है वे भी ऐसे ही श्रावकों में से थे । ये श्रीमालीजाति के सोनिगिरा वंश के थे । इन का वंश बडा गौरव और प्रतिष्ठावान् था । इस के वर्णन करने की यहां पर जगह नहीं । मंत्री मंडन और धनराज के पितामह का नाम झंझण था । इस के १ चाहड, २ बाह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org