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________________ सं. १४७५ से ले कर १५१५ तक के ४० वर्षों में हजारों-बल्के लाखोंग्रंथ लिखवाये और उन्हें भिन्न भिन्न स्थानों में रख कर अनेक नये पुस्तक-भाण्डार कायम किये। इन्हों ने अपने उपदेश से ऐसे कितने भाण्डार तैयार करवाये इस की पूरी संख्या ज्ञात नहीं हुई । ऊपर दिये हुए 'अष्टलक्षी' के प्र. शस्ति-पद्यसे जैसलमेर, जावालपुर, देवगिरि (दौलताबाद), अहिपुर और पाटन इन५ स्थानों के भाण्डारों का तथा मंडपदुर्ग (मांडवगढ़), आशापल्ली या कर्णावती और खंभायत इन तीन और अन्य भाण्डारों का उल्लेख मिलता है। इन भाण्डारों में से वर्तमान में, केवल एक ही भाण्डार ठीक ठीक हालत में, उपलब्ध है-जो पाटन के वाडीपुर-पा. र्श्वनाथ के मंदिर में संरक्षित है । यद्यपि, इस में की पुस्तकों का भी अधिकांश भाग इधर उधर हो गया है तथापि उल्लेख करने योग्य पुस्तके अब भी बहुत कुछ विद्यमान हैं । इस में सब मिलाकर वर्तमान में ७५० लगभग पुस्तके हैं जो न्याय, व्याकरण, काव्य, साहित्य और धर्म आदि प्रथक् प्रथक् विषयों के साथ ताल्लुक रखती हैं । इस में कितने ही तो ऐसे अपूर्व ग्रन्थ हैं जो अन्यत्र कहीं नहीं दृष्टिगो. चर होते । इस के अधिकांश ग्रंथ एक ही नाप के कागजों पर, एक ही जैसे अक्षरों में लिखे हुए हैं । प्रायः कर के हर एक पुस्तक के अंत में जिनभद्रसूरि का जिक्र और जिस श्रावक ने उसे लिखवाई, उस का उल्लेख किया हुआ है। उदाहरण के लिये नमूने लीजिए "सं. १४८४ वर्षे श्रीजिनराजसूरिपट्टालंकारसारश्रीजिनभद्रसूरिगुरूणामुपदेशेन श्रीउकेशवंशे घोरवाडशाखायां महं० लखमसिंहसुता महं० हरिराज-खेता-पद्मा-वीराभिधा जाताः । तत्र पद्माकस्य साधु जिनराज-साधुनोडा-साधुधणपतिनामानो विजयन्ते । तत्र जिणराजपुत्राभ्यां जासलदेवीकुक्षिसंभूताभ्यां सा० वज्रांग-सा० समरसिंहाभ्यां सा० वज्रांगसुत-समधर-श्रीराज सहिताभ्यां श्रीमदणहिल्लपत्तननगर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003389
Book TitleVignaptitriveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1916
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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