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जिनभद्रसूरि के पूर्व में तो बहुत करके ताड़पत्रों पर ही ग्रंथों के लिखनेकी प्रथा थी परन्तु इन के समय में इस प्रथा में एकदम बड़ा भारी परिवर्तन हुआ । इनके समय में चाहे तो ताड़पत्रों को प्राप्ति दुर्लभ हो गई हो चाहे कागजों की प्रवृत्ति विशेष बढ़ गई हों, कुछ भी हो, परन्तु इस अर्से में ताड़पत्रों पर लिखना एकदम बन्ध हुआ और उनका स्थान काग़ज़ों को मिला ! ताड़पत्र पर जितने पुराणे ग्रंथ लिखे हुए थे उन सब की नकलें इस समय में काग़ज़ पर की गई थीं। गुजरात और राजपूताने के प्रसिद्ध भाण्डारों के ताडपत्रों का इसी एक ही समय में, एक साथ, जीर्णोद्धार हुआ था। पाटन और खंभात के ग्रंथों का कागजी संस्करण तो इधर तपागच्छ के आचार्य देवसुन्दर और सोमसुन्दरसूरि की मंडली ने किया था और उधर जैसलमेर के शास्त्रों का समुद्धार, खरतरगच्छ के अधिपति जिनभद्रसूरि की मण्डली ने किया था । ऐतिहासिक उल्लेखों से ज्ञात होता है कि इस समय में पुस्तकोद्धार के कार्य का प्रवाह अति तीव्र वेग से बहने लगा था । इस १५ वीं शताब्दी के मध्य और अन्त मैं कोई लाखों प्रतियें लिखी गई थीं !
जैसलमेरका प्रदेश, मरुस्थल होने के कारण बहुत विषम है इस लिये गुजरात की अपेक्षा, मुसलमानों के उद्वेगजनक आक्रमण वहां पर कम होते थे । इस स्थितिका विचार कर, पुराने आचार्यों ने गुजरात में से बहुत सी पुस्तकें वहां पर पहुंचा दी थीं। ये पुस्तकें वहां पर बड़े प्रयत्न से संरक्षित रक्खी गई थीं । जैसलमेर खरतरगच्छ का प्रधानस्थान था । जिनभद्रसूरि इल गच्छ के नेता थे इस लिये ये सब पुस्तकें इनके स्वाधीन थीं । तपागच्छीय समुदाय द्वारा गुजरात के भाण्डारों के उद्धार होने की बात जिनभद्रसूरि के सुनने मैं आई तो इन्हों ने भी जैसलमेर के शास्त्र - संग्रह के उद्धार करने का संकल्प किया। अनेक अच्छे अच्छे लेखक इस काम के लिये रोके गये और उन के द्वारा ग्रंथों की, ताडपत्रों पर से कागजों पर नकलें कराई जाने लगी | जिनभद्रसूरि स्वयं जुदा जुदा प्रदेशों में फिर कर श्रावकों को शास्त्रोद्धार का सतत उपदेश देने लगे । इस प्रकार
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