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इन्हों ने जैसे और जितने शास्त्र - भाण्डार स्थापित किये-कराये वैसे शायद ही अन्य किसी आचार्य ने किये - कराये हों । इस ग्रंथोद्धार कार्य के प्राचुर्य में इन के और सुकृत्य मानों गौण हो गये थे। पिछले कितने ही विद्वानों ने तो, इन का उल्लेख करते समय इस कृत्य को विशेषण तथा उल्लिखित किया है। वाचनाचार्य श्रीगुणविनयगणि ने, अपने ' संबोधसत्तरि ' के विवरण के अन्त की प्रशस्ति में इन का उल्लेख करते हुए लिखा है कि
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श्रीज्ञानकोशलेखनदक्षा जिनभद्रसूरयो मुख्याः ।
तत्पट्टे सञ्जातास्ततोऽद्युतन् दिव्यगुणजाताः ॥ १७ ॥
वाचक श्रीसमय सुन्दरगणि ने, अपनी " 'अष्टलक्षी अथवा अर्थ रत्नावली " की प्रशस्ति में लिखा है कि
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सूरि "
श्रीमज्जेसलमेरुदुर्गनगरे जावालपुर्यां तथा
श्रीमद्देवगिरौ तथा अहिपुरे श्रीपत्तने पत्तने । भाण्डागारम्बी भरद्वरतैरैर्नानाविधैः पुस्तकैः
स श्रीमज्जिनभद्रसूरिगुरुर्भाग्याद्भुतोऽभूद्भुवि ॥ २१ ॥
"
पाटन के बाडीपुर-पार्श्वनाथ के मंदिर की प्रशस्ति में भी इस बातका उल्लेख है
( Professor P. Peterson's Fourth Report, Page 12. )
" स्थान (ने) स्थान (ने) स्थापितसारज्ञानभाण्डागार श्री जिनभद्र
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( Epigraphia indica, Vol, I, XXXVII. )
१ इस पुस्तक में " राजानो ददते सौख्यम् ” इस एक वाक्य के जुदा जुदा प्रकार से आठ लाख अर्थ किये गये हैं !
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