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वस्त्रादि भेंट कर उन का खूब स्वागत किया था। राउल श्री वैरिसिं. हजी का भी बहुमूल्य वस्तुओं द्वारा अच्छा सन्मान किया था जिस के बदले में उन्हों ने भी इन चारों भाइयों को, विविध प्रकार के वस्त्र और आभूषणादि दे कर अपना प्रेम प्रदर्शित किया था। यह बात इसी प्रशस्ति के अंत में लिखी हुई है।
___ अथ संवत् १४९४ वर्षे श्रीवैरिसिंहराउलराज्ये श्रीजिनभद्रसूरीणामुपदेशेन नवीनः प्रासादः कारितः । ततः संवत् १४९७ वर्षे कुंकुमपत्रिकाभिः सर्वदेशवास्तव्यपरःसहस्रश्रावकानामन्व्य प्रतिष्ठामहोत्सवः सा० शिवायैः कारितः । तत्र च महसि श्रीजिनभद्रसूरिभिः श्रीसंभवनाथप्रमुखबिम्बानि ३०० प्रतिष्ठितानि प्रासादश्च ध्वजशेखरः प्रतिष्ठितः । तत्र संभवनाथो मूलनायकत्वेन स्थापितः। तत्र चावसरे सा० शिवामहिश-लोला-लाषणश्राद्धैः दिन ७ साधर्मिकवात्सल्यं कृतं राउलश्रीवैरिसिंहेन साकं श्रीसङ्घो विविधवस्त्रैः परिधापितः । राउलश्रीवैरिसिंहेनापि चत्वारस्ते बान्धवाः स्वबान्धववद्वस्त्रालंकारादिदानेन सन्मानिता । इति । (S. R. Bhandarkar's Second Report,
1904-5 and 1905-6, P. 97.) इस प्रकार इन्हों ने अनेक स्थानों पर बड़े बड़े जिन मन्दिर बनवाये, प्रतिष्ठा महोत्सव करवाये और हजारों जिनबिम्ब प्रतिष्ठित किये थे । इन की प्रतिष्ठित प्रतिमाओं के अनेक लेख मेरे पास हैं परन्तु उन के यहां पर देने की कोई आवश्यकता नहीं केवल ऊपर दिये गये इसी एक लेख से, सब का दिग्दर्शन हो जाता है।
+ जिनभद्रसूरि और पुस्तक-भाण्डागार । जिनभद्रसूरि ने अपने जीवन में सब से अधिक महत्त्व का और विशिष्टत्व वाला जो कार्य किया है वह भिन्न भिन्न स्थानों में विशाल पुस्तकालय स्थापन कराने का है।
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