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________________ इस प्रकार ये आचार्य बड़े शान्त, दान्त, संयमी, विद्वान् और पूरे योग्य गच्छपति थे। इन के उपदेश से, जैसलमेर के श्रावक सा. शिवा महिश, लोला और लाषण नाम के४ भ्राताओ ने, संवत् १४९४ में बड़ा भव्य जिनमन्दिर बनाया जिस की प्रतिष्ठा इन्हों ने सं. १४९७ में की थी और संभवनाथ प्रमुख ३०० जिनबिम्ब प्रतिष्ठित किये थे । इस प्र. तिष्ठा में उक्त ४ भ्राताओं ने अगणित द्रव्य खर्च किया था । दूर दूर के प्रदेशों से हजारों श्रावकों को कुंकुमपत्रिकायें भेज भेज कर बुलवाये थे । प्रतिष्ठा बाद समग्रसार्मिक बन्धुओं को नाना प्रकार के लक्ष्मणस्य तनयो विराजते वैरिसिंह इति विश्रुतः सदा । तेन देवभवनं प्रतिष्ठित राज्यवहा(द्धय ?) खिल पाप विशुद्धये ॥५॥ वेदाकाब्धीन्दुवर्षे शिशिरऋतुवरे माघशुक्ले च पक्षे षष्ठयां वै शुक्रवारे स्वितिभइठनउदयोनि(?) इन्दौ तु मेषे । भूपः श्रीवैरिसिंहः स (सु ?) रवरभवने कारयत्सुप्रतिष्ठामृत्विभिर्वेदविद्भिर्नृपतिभिरनिशं वन्दिताद्ध्यब्जयुग्मः ॥ ६ ॥ (S. R. Bhandarkar's Second Report, 1904-5 and 1905-6, Page 65.) + इन ४ भाईयो ने अनेकानक सुकृत कर अपने न्यायोपार्जित द्रव्य का सदुपयोग किया था । सं. १४८७ में इन्हो ने जैसलमेर से, शत्रुजय और गिरनार की यात्रा के लिये संघ निकाला था और सं. १४९० में, पञ्चमी-तप का उद्यापन किया था। " विक्रमवर्षचतुर्दशसप्ताशीतौ विनिर्ममे यात्रा । शत्रुजयरैवतगिरितीर्थे सङ्घान्वितैरेभिः ॥ २ ॥ पञ्चम्युद्यापनं चक्रे वत्सरे नवतौ पुनः । चतुर्भि बन्धिवैरेभिश्चतुर्धा धर्मकारकैः ॥ ३॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003389
Book TitleVignaptitriveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1916
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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