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शमदमसंयमनिधयः सिद्धान्तसमुद्रपारदृश्वानः । श्रीजिनभद्रयतीन्द्रा विजयन्ते ते गणाधीशः ॥ ८॥ (S. R. Bhandarkar's Second Report,
1904-5 and 1905-6; Page 96-97.) तात्पर्यार्थ यह है कि ये बडे प्रभावक, प्रतिष्ठावान और प्रतिभाशाली आचार्य थे। सिद्धान्तों के विचारों को जानने वाले बड़े बड़े पण्डित इन के आश्रित (सेवा) रहते थे। इन के उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य और सत्यव्रतको देख कर लोक इन्हें स्थ्लिभद्र की उपमा देते थे। इन के वचन को सब कोई आप्तवचन की तरह, स्वीकारते थे। इन्हों ने अपने सौभाग्य से शासन को अच्छी तरह दीपाया-शोभाया-था। गिरनार, चित्रकूट (चितोड़-गढ) और माण्डव्यपुर (मंडोवर) आदि अनेक स्थलों में इन के उपदेश से श्रावकोंने बड़े बड़े जिनभवन बनाये थे । अणहिल्लपुर-पाटण आदि स्थानों में विशाल पुस्तकभाण्डार स्थापन करवा ये थे। मण्डपदुर्ग, प्रल्हादनपुर (पालन. पुर)तलपाटक आदि नगरों में अनेक जिनबिम्बों की विधि-पूर्वक प्रतिष्ठायें की थीं। इन्हों ने अपनी बुद्धि से, अनेकान्तजयपताका (हरिभद्रसरि रचित ) जैसे प्रखर तर्कगन्थ और विशेषावश्यकभाष्य (जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण प्रणीत ) जैसे महान् सिद्धान्तग्रन्थ अनेक मुनियों को पढाये थे। ये कर्मप्रकृति और कर्मग्रन्थ जैसे गहन ग्रन्थों के रहस्यों का विवेचन ऐसा सुन्दर और सरल करते थे कि जिसे सुन कर भिन्नगच्छ के साधु भी चमत्कृत होते थे और इन के ज्ञान की प्रशंसा किया करते थे । राउल श्रीवैरिसिंह' और त्र्यम्बकदास जैसे नृपति इन के चरणों में भक्तिपूर्वक प्रणाम किया करते थे।
१ वैरिसिंह जैसलमेर के राजा थे। ये राउल श्रीलक्ष्मणदेव के पीछे, उन के उत्तराधिकारी बने थे । इन्हों ने सं. १४९४ में, जेसलमेर में, लक्ष्मीकान्त प्रीत्यर्थ पंचायतन-प्रासाद बनवाया था जिसे आज-कल लक्ष्मीनारायण का मन्दिर कहते हैं। यह बात इस मन्दिर के शिलालेख से निश्चित होती है। यथा
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