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समय में (सं. १५८३-१६१२) लिखी गई है, उस में इस बात का कुछ भी उल्लेख नहीं है । केवल इतना ही लिखा है कि
"सं. १४६१ वर्षे आषाढवदि १० श्रीदेवकुलपाटके सा. नान्हाकारितनन्यां सागरचन्द्राचार्यैः स्थापितानां प्राच्यादिषु देशेषु कृतविहाराणां सङ्घोन्नति-गणवृद्धिकारिणां चतुर्थव्रतविराधनशंकया तैरेव प्रथक्कृतानां श्रीजिनवर्द्धनसूरीणां शाखा पिप्पलगणो जातः।"
इस अवतरण में सत्य की मात्रा, पूर्व के करते अधिक प्रतीत होती है । क्यों कि इस में, आक्षेप के रूप में कोई बात नहीं लिखी गई। प्रत्युत जिनवर्द्धनसूरि के पूर्वादि देशों में विचरना और संघ की तथा गच्छ की वृद्धि करना आदि वाक्यों से, गुणों का उल्लेख किया है और फिर एक दोष का-वह भी शंका ही के रूप में-जिक्र किया है । इन दोनों लेखों से यह तो साबित होता है कि वास्तव में जिनवर्द्धनसूरि कोई सदोष न थे परन्तु सागरचंद्राचार्य-जो उस समय खरतर गच्छ में बहुत करके सब से वृद्ध और प्रतिष्ठित साधु थे-को चाहे तो, उन के आचरण में शंका पडी हो, या चाहे किसी बात पर परस्पर मनोमालिन्य हो गया हो, जिस से उन्हों ने गच्छ में, अपना जोर चला कर जिनवर्द्धनसरि को पदच्युत करने के इरादे से नये आचार्य की स्थापना की । यद्यपि संघ के विशेष भागने, जिनभद्रसूरि ही को अपना गच्छपति माना था तथापि जिनवर्द्धन सूरि का पक्ष भी प्रबल अवश्य था । यह बात, उन के पीछे जो जि. नचंद्रसूरि आदि जुदा आचार्य हुए और उन्हों ने अनेक स्थलों में प्रतिष्ठादि कार्य किये तथा पिप्पलखरतर के नाम से अद्यावधि जो उन की सन्तति विद्यमान रही; इसी से सत्य प्रतीत होगी।
अस्तु, प्रकृतविषय में जिनवर्द्धनसूरि की प्रधानता न हो कर. जिनभद्रसूरि की है। इस लिये उन्हीं के जीवन पर दृष्टि डालनी उ. चित होगी। इस में तो कोई संदेह नहीं कि जिनवर्द्धनसूरि की अपेक्षा जिनभद्रसूरि का भाग्य अधिक तेजस्वी था। गच्छ के बहुत
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