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________________ दिन कुंभलमेर ( ताबे उदयपुर ) में स्वर्गवास प्राप्त किया । इन के समय में, सं. १४७४ में, जिनवर्द्धनसूरि से पिप्पल - खरतर नाम की खरतरगच्छ की ५ वी शाखा निकली । " जिनवर्द्धनसूरि के विषय में जो उल्लेख इस में किया गया है वह कहां तक सत्य है उस का निर्णय मैं नहीं कर सकता; तथापि इतना तो अवश्य सत्य है कि, प्रथम जिनराजसूरि के पट्ट पर जिन - वर्द्धन ही स्थापित किये गये थे परन्तु पीछे से किसी मतभेद के कारण या अन्य किसी निमित्त सागरचन्द्राचार्य और कितने एक खरतरगच्छ के अग्रगण्य मनुष्यों ने जिनभद्र को अपना आचार्य बनाया था । जिनवर्द्धनसूरि के भ्रमितचित्त होने का तथा क्षेत्रपाल के उठाने और उस के उपद्रव करने का जो उल्लेख किया गया है उस में तथ्य हों ऐसा प्रतीत नहीं होता । केवल मतभेद या पक्षविरोध के कारण यह वृत्तान्त गढ़ लिया गया है । मेरे पास खरतर - गच्छ की एक और पुराणी पट्टावलि है, जो जिनमाणिक्यसूरि के सं० १९१५ वर्षे आषाढ वदि २ श्री ऊकेशवंशे बरडा गोत्रे सा ० हरिपाल सुत भा० आसा सापू तत्पुत्र मं० मंडलिक सुश्रावकेण भार्या सं. रोहिणि पुत्र सं० साजणप्रमुख परिवारसहितेन निजश्रेयसे विमलनाथर्विवं कारितं प्रतिष्ठितं च श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनराजसूरिपदे श्रीजिनभद्रसूरिभिः । यदि यह लेख ठीक हों-गलत न हों तो पट्टावलि में लिखी हुई जिनभद्रसूरि की स्वर्गतिथि भ्रान्त ठहरती है । परंतु इस पट्टावलि के सिवा एक और जूनी पट्टावलि में भी यही तिथि दी हुई है और प्रामाणिक भी विशेष यही प्रतीत होती है । क्यों कि ऐसा न हों तो फिर जिनचंद्रसूरि, जो जिनभद्रसूरि के उत्तराधिकारी थे, की आचार्यपद्वी की तिथि भी भ्रान्त ठहरती है । संभव है कि उक्त लेख के पढ़ने में गड़बड़ हो गई हों और १० की जगह १५ पढ़ा गया हों, क्यों कि जैननागरी लिपि में शून्य और पाँच के अंक में बहुत थोडा- नहीं के जैसा-प - फरक होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003389
Book TitleVignaptitriveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1916
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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