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मास्यां भणसालिक-नाल्हासाहकारितसपादलक्षरूपकव्ययरूपनन्दिमहोत्सवेन सूरिपदे स्थापितवान् । सप्तभकारस्तु अमी-माणसोलनगरम् १, भणशालिकगोत्रम् २, भादौनाम ३, भरणीनक्षत्रम् ४, भद्राकरणम् ५, भट्टारकपदम् ६, जिनभद्रसूरि-नाम ७ । अथैवंविधा अर्बुदाचलगिरनारजेसलमेरुप्रमुखस्थानेषु बिम्बप्रासादप्रतिष्ठाकारकाः। श्रीभावप्रभाचार्यकीर्तिरत्नाचार्यस्थापकाः । स्थाने स्थाने पुस्तकमाण्डागारस्थापकाः श्रीजिनभद्रसूरयः सं० १५१४ मार्गशीर्षवदिनवम्यां कुम्भलमेरुनगरे स्वर्ग प्राप्ताः । तद्वारके सं० १४७४ [ वर्षे ] श्रीजिनवर्द्धमानसूरितः पिप्पलखरतरशाखा निर्गता।"
अर्थात्-जिनराजसूरि के पट्ट पर जिनभद्रसरि बैठे। उन का वृत्तांत्त इस प्रकार है । सं. १४६१ के वर्ष में जिनराजसरि के पट्ट पर
१ जिनराजसूरि को सं. १४३२ ( एक दूसरी पुराणी पट्टावलि में ३३ की साल लिखी है ) में, फाल्गुन वदि ६ के दिन, अणहिलपुर में, लोकहिताचार्य-जिन को जिनोदयसूरि ने सूरिपद दिया था-ने आचार्य पद्वी दी थी। इस पद का महोत्सव सा. धरणाने किया था । इन्हों ने सुवर्णप्रभ, भुवनरत्न और सागरचंद्र, इन तीन विद्वानों को आचार्य पद दिया था। सं. १४४४ में, इन्हों ने चित्तोड-गढ पर आदिनाथ बिम्ब की प्रतिष्ठा की थी। ( देवकुल पाटक-पृ. १५)। इन का स्वर्गवास सं. १४६१ में, देलवाडा ( उदयपुर के पास ) में हुआ था । इन के स्मरणार्थ वहां के सा. नान्हाक श्रावक ने इन की संगमर्मर-पत्थर की एक मूर्ति बनाई थी जो आज भी विद्यमान है । इस मूर्तिपर निम्न लिखित लेख खुदा हुआ है।
" संवत् १४६९ वर्षे माघशुदि ६ दिने ऊकेशवंशे सा० सोषा संताने सा० सुहडापुत्रेण सा० नान्हाकेन पुत्र वीरमादि परिवार युतेन श्रीजिनराजसूरिमूर्तिः कारिता प्रतिष्ठिता श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनवर्द्धनसूरिभिः ।"
(देबकुलपाटक-पृ० १५।)
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