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________________ सागरचंद्राचार्य ने जिनवर्द्धनसूरि की स्थापना की। ये एक समय जेसलमेर ( राजपूताना ) गये तो वहां के चिन्तामणि-पार्श्वनाथ के मंदिर में मूलनायकतीर्थकर की प्रतिमा की बराबरी में बैठी हुई क्षेत्र पाल-देव की मूर्ति देखी । उसे देख कर इन के मन में विचार हुआ कि क्षेत्रपाल, जो तीर्थकरों का सेवक है, उस की प्रतिमा को परमात्मा की प्रतिमा के बराबरी में बिठाना अयुक्त है। इस लिये इन्हों ने उस मूर्ति को वहां से उठा कर दरवाजे में रख दी। यह देख कर क्षेत्रपाल कुपित हुआ और जहां तहां इन आचार्य के ब्रह्मचर्य का भंग दिखलाने लगा-स्त्रीका रूप धारण कर रात्रि के समय में इनके मकान में आने जाने लगा। इसी तरह कितनेक दिन बीत गये । ये फिरते फिरते चित्रकोट (चित्तोड) गये वहां भी इस क्षेत्रपाल ने वैसा ही किया जिसे देख कर श्रावकों की श्रद्धा इन पर से ऊठ गई । थोडे समय बाद इस व्यंतर के प्रयोग से ये भ्रमचित्त (पागल) बन गये। और कितने एक अपने शिष्यों के साथ पिप्पलगांव में जा कर स्थिर वास हो कर रहने लगे। यह स्थिति देख कर, सागरचंद्राचार्य आदि स. मस्त साधुवर्ग एकत्र हुआ और गच्छ की स्थिति को व्यवस्थित रखने के लिये किसी नये आचार्य की स्थापना करने का विचार किया। १ सागरचन्द्राचार्य ने, जेसलमेर के चिन्तामणि-पार्श्वनाथ के मंदिर में जिनराजसूरि के आदेश से, संवत् १४५९ में जिनबिम्ब की स्थापना की थी। " नवेषुवार्थीन्दुमिते (१४५९)ऽथ वर्षे निदेशतः श्रीजिनराजसूरेः।। अस्थापयन् गर्भगृहेऽत्र बिम्ब मुनीश्वराः सागरचन्द्रसाराः ॥२१॥" जेसलमेर का तत्कालीन राजा लक्ष्मणदेव राउल सागरचन्द्राचार्य का बहुत कुछ प्रशंसक और भक्त था; ऐसा निम्नलिखित पद्य से जाना जाता है। " गाम्भीर्यवत्त्वात्परमोदकत्वाद्दधार यः सागरचन्द्रलक्ष्मीम् । युक्तं स भेजे तदिदं कृतज्ञः सूरीश्वरान् सागरचन्द्रपादान् ॥१४॥" (S. R. Bhandarkar's Second Report, 1904-5 and 1905-6, Page 94.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003389
Book TitleVignaptitriveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1916
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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