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ऊपर दिये गये विज्ञप्तित्रिवेणि के सारांश से पाठक जान गये होंगे की यह पत्र ऐतिहासिक दृष्टि से कितने महत्त्व का है ?। इस में लिखा गया वृत्तान्त मनोरंजन हो कर जैनसमाज की तत्कालीन स्थितिपर कैसा अच्छा प्रकाश डालता है ? । इस के अवलोकन से हमें यह बात प्रत्यक्ष हो रही है कि उस समय, भारत के उन प्रदेशों में भी जैन धर्म का कैसा अच्छा प्रचार और सत्कार था कि जहां आज जैन शब्द से भी लोक बिल्कुल परिचित नहीं हैं, अथव बहुत ही कम हैं। इस पत्र से साफ प्रकट हो रहा है कि पुराणे समय में गुजरात और राजपूताना की तरह सिंध और पंजाब में भी श्वेताम्बर जैन संप्रदाय का बहुत कुछ प्रचार था। उस समय इन प्रदेशों में हजारों जैन वसते थे और सेंकडों जिनालय मौजूद थे, कि जिन में का आज एक भी विद्यमान नहीं । जिन मरुकोट्ट, गोपाचल, नन्दनवन. पुर और कोटिल्लग्राम आदि तीर्थस्थलों का इस में उल्लेख है उन का आज कोई नाम तक भी नहीं जानता। जहां पर पांच पांच दश दश साधु चातुर्मास रहा करते थे वहां पर आज दो घंटे ठहरने के लिये भी यथेष्ट स्थान नहीं। जिस नगरकोट्ट-महातीर्थ की यात्रा करने के लिये इतनी दूर दूर से संघ जाया करते थे वह नगरकोह कहां पर आया है इस का भी किसी को पता नहीं । अस्तु ।
+ अधिक परिचय । इस प्रबन्ध में मुख्य कर तीन व्यक्तियों का विशेष उल्लेख
है। आचार्य जिनभद्रसूरि, उपाध्याय जयसागर और C नगरकोट्ट-महातीर्थ इन्हीं तीन नामों की इस पत्र में मुख्यता है।देखें तो अब इन के विषय में और भी कुछ विशेष वृत्तान्त या अधिक परिचय कहीं मिलता है नहीं ?
- जिनभद्रसूरि । - अन्यान्य ऐतिहासिक साधनों के देखने से मालूम होता है कि
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