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रहने के लिये जुदा आग्रह करना शुरू किया। इस प्रकार तीनों तरफ से खींचा-तान होती देख उपाध्यायजी ने स्थानिक श्रावकों को तो कछ समझा-बुझा कर शांत कर दिये परंतु आगन्तुक संघों का किसी तरह समाधान न हुआ । उपाध्यायजी ने दोनों के दिल राजी रखने के लिये एक युक्ति निकाली और उन से कहा कि यहां से रवाना होते समय जिस तरफ अच्छे शकुन होंगे उसी गांव में हम आवेंगे। इस बात का दोनों ने स्वीकार कर भाग्य के भरोसे पर आधार रक्खा । उपाध्यायजी उसी दिन सायंकाल को विहार कर प्रथम मम्मणवाहण की ओर चलने लगे परंतु गांव से बाहर निकलते ही अपशकुन हुए इस लिये उस मार्ग को छोड़ कर मलि. कवाहण की तरफ प्रयाण किया। जो श्रावक आमंत्रण करने के लिये आये हुए थे उन्हीं के साथ वहां पर पहुंचे । द० मालाक ने उपाध्यायजी का प्रवेशोत्सव किया और वहीं पर सं. १४८४ का चातुर्मास निर्गमन किया। चातुर्मास-पर्युषणा पर्व-में अनेक श्रावकश्राविकाओं ने मासक्षपण आदि बड़े बड़े तप किये । चउमासे बाद, पौषमहिने में, नन्दि महोत्सव किया गया और तीन साधु, चार श्रावक तथा २४ श्राविकाओं ने तपश्चरण आदि नाना प्रकार के अभिग्रह धारण किये । नगरकोट्ट से आते वक्त, देवपालपुर में मेघराजगणि आदि जिन ४ साधुओं को चातुर्मास रहने के लिये रख आये थे वे भी इस समय उपाध्यायजी के समीप आ पहुंचे।
बस यही इस विज्ञप्तित्रिवेणि का सार है। उपाध्याय श्रीजयसागरजी की इस मुसाफरी का और तीर्थयात्रा का कुछ हाल, किसी के मुख से, आचार्य श्रीजिनभद्रजी ने सुना तो उन्हों ने इस का पूरा हाल जानना चाहा और तदनुसार पत्र द्वारा उपाध्यायजी को अपना भ्रमणवृत्तान्त लिख भेजने की सूचना की। इसी सूचना के प्रत्युत्तर में यह विज्ञप्तित्रिवेणी लिखी गई और नगरकोट्ट वगैरह तीर्थों की यात्रा के वृत्तान्त को आलंकारिक भाषा में निबद्ध कर आचार्य को भेंट किया गया ।
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