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४१ पति मार्ग में याचक गणों को इच्छित दान देता हुआ चला जाता था। किले में जाने के लिये राजमहलों के बीच में हो कर जाना पडता था । इस लिये राजा नरेन्द्रचन्द्र-जो उस समय वहां का राज्य करता था-ने अपने नौकरों को, संघ के आने जाने में हरकत न करने की आज्ञा दे दी। साथ में हेरंब नाम के एक आत्मीय नौ. कर को किले का मार्ग बताने के लिये भेजा। इस प्रतिहार के बताये हुए मार्ग से, शनैः शनैः राज-भवनों के मध्य हो कर और एक के बाद दूसरे को इस प्रकार सात दरवाजों को, जो किले में जाते वक्त बीच में पड़ते थे, पार कर संघ ने किले के अंदर प्रवेश किया । मार्ग में जाते समय, संघ को देखने के लिये, राजकीय और प्रजाकीय मनुष्यों की बड़ी भारी भीड लग गई थी । इन मनुष्यों के, चिरकाल परिचितों की तरह, प्रेम पूर्वक देखते हुए, संघजनों ने परमेश्वर परमात्मा श्री आदिनाथ को, अति भक्ति और आहाद पूर्वक प्रणाम किया। मुनियों ने नाना प्रकार से स्तवना कर भाव पूजा की और थावकोंने भावपूजा के साथ अगण्य फल-फूलादि द्वारा द्रव्य पूजा कर अपने आत्मा को निर्मल बनाया। इन आगन्तुक यात्रियों के प्रति वहाँ के वृद्ध मनुष्य इस तीर्थ का बहुत कुछ माहात्म्य वर्णन करने लगे। पुराना हाल सुनाते हुए वे कहने लगे कि-" यह महातीर्थ, श्रीनेमिनाथ तीर्थकर (२२ ३) के समय में सुशर्म नाम के राजा ने स्थापित किया था । यह आदिनाथ भगवान् की जो मूर्ति है वह किसी की घड़ी हुई न हो कर स्वयंभू-अर्थात् अनादि है । इस का बड़ा भारी अतिशय चमत्कार-है, जो आज भी प्रत्यक्ष है । देखिए, भगवान् के चरणों की सेवा करने वाली यह जो अंबिकादेवी है ( देवी की मूर्ति है), इस के प्रक्षालन का पानी-चाहे वह फिर एक हजार घडो जितना हो-भगवान के प्रक्षालन के पानी के साथ, बि. ल्कुल पास पास होने पर भी, कभी नहीं मिल जाता । मंदिर के मुख्य गर्भागार में, चाहे कितना ही स्नात्र-जल पडा हुआ हो और फिर बाहर से दरवाजे ऐसे बंध कर दिये जायं कि जिस से कीटि का भी अन्दर न जा सके, तो भी क्षणभर में वह सब पानी सूख जाय गा। ऐसे ऐसे बहुत से प्रभाव आज भी इस महातीर्थ के प्र.
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