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तट का आश्रय लिया । नावों में बैठ कर जल्दी से उस को पार किया और कुंगुद नाम के घाट में हो कर, मध्य, जांगल, जालन्धर और काश्मीर इन चार देशों की सीमा के मध्य में रहे हुए हरियाणा नाम के स्थान में पहुंचा। इस स्थल को निरुपद्रव जान कर वहां पर पडाव डाला | वहीं पर, कानुकयक्ष के मंदिर के नजदीक, शुचि और धान्य प्रधान स्थान में, चैत्र सुदी एकादशी के रोज सर्वोत्तम समय में, नाना प्रकार के वाद्यों के बजने पर और भाट-चारणों के, बिरुदावली बोलने पर, सब संघ इकट्ठा हो कर, साधुश्रेष्ठ सोमा को उस के निषेध करने पर भी, संघाधिपति का पद दिया । मल्लिकवाहन के सं० मागट के पौत्र और सा० देवा के पुत्र उद्धर को महाधर पद दिया गया । सा० नीवा, सा० रूपा, और सा० भोजा को भी महाधर पद से अलंकृत किया गया। सैल्लहस्त्य का बिरुद बुवासगोत्रीय सा० जिनदत्त को समर्पण किया गया । इस प्रकार वहां पर पीदान करने के साथ उन उन मनुष्यों ने संघ की, भोजनवस्त्र - आभूषणादि विविध वस्तुओं द्वारा भक्ति और पूजा कर याचक लोकों को भी खूब दान दिया। संघ के इस कार्य को देख कर मानों खुश हुआ हुआ और उस के गुणों का गान करने के लिये ही मानों गर्जना करता हुआ दुसरे दिन खूब जोर से मेघ वर्षने लगा । बेर बेर जितने बड़े बड़े ओले बादल में से गिर ने लगे और झाडों तथा झुंपडीओं को उखाड़ कर फेंक देने वाला प्रचण्ड पवन चलने लगा। इस जलवृष्टि के कारण संघ को वहां पर पाँच दिन तक पड़ाव रखना पडा । ६ वें दिन सवेरे ही वहां से कूच की। सपादलक्षपर्वतकी तंग घाटियों को लांघता हुआ, सघन झाडियों को पार करता हुआ, नाना प्रकार के पार्वतीय प्रदेशों को आश्चर्य की दृष्टि से देखता हुआ और पहाडी मनुष्यों के आचार-विचारों का अनुभव करता हुआ संघ फिर विपाशा के तट पर पहुंचा। उसे सुखपूर्वक उत्तर कर, अनेक बड़े बड़े गाँवों के बीच होता हुआ, और तत्तद् गांवों के लोकों और स्वामियों को मिलता हुआ, क्रम से पातालगंगा के तट ऊपर पहुंचा । उसे भी निरायास पार कर क्रम से आगे बढते हुए और पहाड़ों की चोटियों को पैरों नीच कुचलते हुए संघ ने दूर से, सोने के
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