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________________ लिये आगे होता था। इस प्रकार सब से आगे उछलते, कूदते और गाजते हुए सिपाही चले जाते थे। उन के पीछे बड़ी तेजी के साथ चलने वाले ऐसे बड़े बड़े बैल चलते थे जिन पर सब प्रकार का मार्गो. पयोगी सामान भरा हुआ था। उन के बाद संघ के लोक चलते थे जो कितने एक गाडी घोडों आदि वाहनों पर बैठे हुए थे और कई एक देव-गुरु-भक्ति निमित्त पैदल ही चलते थे। कितने ही धर्मी जन तो साधुओं की समान नंगे ही पैर मुसाफरी करते थे। इस प्रकार अविच्छिन्न प्रयाण करता हुआ और रास्ते में आने वाले गाँवों को लांघता हुआ संघ निश्चिन्दीपुर के पास के मैदान में, सरोवर के किनारे आ कर ठहरा । संघ के आने की खबर सारे गाँव में फैली और मनुष्यों के झुंड के झुंड उसे देखने के लिये आने लगे। गाँव का मालिक जो सुरत्राण (सुल्तान) कर के था वह भी अपने दिवान के साथ एक ऊँचे घोडे पर चढ़ कर आया । जन्म भर में कभी नहीं देखे हुए ऐसे साधुओं को देख कर राजा बडाविस्मित हुआ। उपाध्यायजीने उसे रोचक धर्मोपदेश सुनाया, जिसे सुनकर नगर के लोकों के साथ वह बडा खुश हुआ और साधुओं की स्तुति कर आदर पूर्वक प्रणाम किया। बाद में संघपति सोमा का सम्मान कर अपने स्थान पर गया। संघ वहां से प्रयाण कर क्रमसे तलपाटक पहुंचा। वहां पर गुरुओं को वन्दन करने के लिये देवपालपुर का श्रावकसमुदाय आया और अपने गांव में आने के लिये संघ को अत्याग्रह करने लगा। उन लोकों को किसी तरहसमझा-बुझा कर संघने वहां से आगे प्रयाण किया और विपाशा (व्यासा) नदी के किनारे किनारे होता हुआ क्रम से मध्यदेश में पहुंचा। जगह जगह ठहरता हुआ संघ इस देश को पार कर रहाथा, कि इतने में एक दिन, एक तरफ से षोषरश यशोरथ के सैन्य का और दूसरी ओर से शकन्दर के सैन्य का, “ भगो, दोडो, यह फौज आई, वह फौज आई; इस प्रकार का चारों तरफ से कोलाहल सुनाई दिया। इसे सुन कर संघ के हाँस ऊड गये। सब दिङ्: मृढ हो गये । यात्रीलोक दिल में बड़े घबराये और अब क्या किया जाय इस की पि.क में निश्चेष्ट से हो रहे । किसी प्रकार हौंस संभाल कर और परमात्मा का ध्यान धर संघ पीछा लौटा और विपाशा के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003389
Book TitleVignaptitriveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1916
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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