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________________ श्रीधर्मसागरजी ने अपनी तपागच्छ की पट्टावली में, इस के विषय में लिखा है कि येनानेकप्रासादपद्मचक्रषट्कारकक्रियागुप्तकार्यभ्रमसर्वतोभद्रमुरजसिंहासनाशोकभेरीसमवसरणसरोवराष्टमहाप्रातिहार्यादिनव्यत्रिशतीवन्धत प्रयोगाद्यनेकचित्राक्षरद्वयक्षरपञ्चवर्गपरिहाराद्यनेकस्तवमयत्रिदशतराङ्गणीविज्ञप्तिनामधेयाष्टोत्तरशतहस्तमितो लेखः श्रीगुरूणां प्रेषितः ।* इस के तीन स्रोत और ६१ तरंग थे। यह अब संपूर्ण तया नहीं मिलता। केवल तीसरे स्रोत का गुर्वावली-नामक एक विभाग-जिसे कर्ता ने महाहूद की संज्ञा दी है, और प्रासादादि चित्रबंध कितनेक स्तोत्र इधर उधर छूटे छूट मिलते हैं। गुर्वावली छपकर प्रकट हो चुकी है। इस के सब मिला कर कोई ५०० पद्य है। इस में, श्रमणभगवान् श्रीमहावीर से ले कर लेखक तक के तपागच्छ के आचार्यों का संक्षिप्त, परन्तु विश्वस्त, इतिहास है । इस के अन्त में लेखक ने स्वयं इस प्रकार लिखा है इति श्रीयुगप्रधानावतारश्रीमत्तपागच्छाधिराजबृहद्च्छनायकपूज्याराध्यपरमाप्तपरमगुरुश्रीदेवसुन्दरसूरिंगणराशिमाहमार्णवानुगामिन्यां तद्विनेयश्रीमुनिसुन्दरगणिहृदयहिमवदवतीर्णश्रीगुरुप्रभावपद्महृदप्रभवायां श्रीमहापर्वाधिराजश्रीपर्युषणापर्वविज्ञप्तित्रिदशतरङ्गिण्यां तृतीये श्रीगुरुवर्णनस्रोतसि गुर्वावलीनाम्नि महाहूदेऽनभिव्यक्तगणना एकषष्टिस्तरङ्गाः। इस उल्लेख और गुर्वावली के अवलोकन से विज्ञ पाठक जान सकते हैं कि यह पत्र, संस्कृत साहित्य का कैसा अनुपम और अपूर्व रत्न होगा। * स्वयं मुनिसुन्दरसरिके शिष्य पं. हर्षभूषणगणि ने 'श्राद्धविधिविनिश्चय' में भी ये ही पंक्तियाँ लिखी हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003389
Book TitleVignaptitriveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1916
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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