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चेतः क्लीबं गतबलतया नैव कार्यक्षम य
चेतन्येनापि हि विरहितं पुद्गलात्मत्वतो वा । स व्यामूढस्तदपि सहसारोप्य पुंस्त्वं ययाचे
कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेषु ॥ ५ ॥ त्वय्यायत्तं ननु तनुमतामत्र दुःखं सुखं वा
त्वत्तो नान्यो जगति सकले कश्चिदास्ते महीयान् । तेनाहं त्वां परहितरतं प्रार्थये स्वार्थसिद्धयै
याच्या मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा ॥ ६ ॥ सन्देश के प्रेषक ने इस प्रकार चित्त का कुछ स्वरूप दिखा कर फिर अपने गुरु के गुणों का वर्णन करना प्रारंभ किया है जो लगभग १०० पद्यों में पूर्ण होता है। गुरुवर्णन के बाद शिष्य अपने को जो गुरु का वियोग हो रहा है उस का उल्लेख करता है और फिर चेतः द्वारा गुरु से कहलाता है कि
ब्रूहि त्वं मे ननु तव विना सङ्गमालोकमेक
हा ! नेष्यन्ते कथमिव मया दुःखिना दुर्दिनानि । अन्तःस्फूर्जद्विरहदहनप्रोच्छलद्धमलेखा
दिक्संसक्तप्रविरलघनव्यस्तसूर्यातपानि ॥ ११५ ॥ ' इस प्रकार नाना प्रकार के चिन्ता-उद्गारों के निकाले बाद शिष्य फिर कुछ आश्वासन प्राप्त करता है और संसार के निस्सार भावों का विचार करता हुआ कहता है किनिस्सारेऽस्मिन् प्रकृतिविरसे भूरिदुःखेऽल्पसौख्ये
संसारे किं भवति बहुना फल्गुना शोचनेन । यस्माजन्मान्तरविरचितैः कर्मभिर्देहभाजां - नीचर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण ॥ ११९ ॥
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