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________________ अपनी विज्ञप्ति और अपने यहां का वृत्तान्त कहना शुरू किया है। यथाप्रादुर्भूते दिनमुखसुखे सौरतेजस्त्रिधाऽपि विश्वं व्याप्तं कथयति महीनाथ ! नान्दी विशेषः । कामक्रीडानिरतमिथुनान्युत्सृजस्त्यक्तनिद्रं मन्दस्निग्धैर्ध्वनिभिरबलावेणिमोक्षोत्सुकानि ॥ ११ ॥ सभ्यास्थायामिह भगवतीपाठपूर्वोत्तराद्या ध्यायव्याख्या भवति तदनु श्रीगुरोगतिवृत्तैः । गन्धर्वाली सुखयति जनं सोत्सवं श्रोत्रपेयैः कान्तोदन्तः सुहृदुपहृतः सङ्गमात्किञ्चिदूनः ॥ १११ ॥ शिष्याध्यायोऽव्रतविरमणं तत्र बापूर्दिदेश कीर्त्यङ्करानिव रजतजद्वादशोद्यद्दशाङ्कान् । वात्सल्यानि प्रवरवसनैर्नामजापोऽहंदादेः पूर्वाभाष्यं सुलभविपदां प्राणिनामेतदेव ॥ ११२ ॥ एवं नित्योत्सवपरिचयैराश्रितोऽपि प्रकामं मेघः शिष्यो गुरुपदयुगासेवया विप्रयुक्तः । सर्वं बाह्यं मनसि रसिको मन्यमानः सुनेतस्त्वामुत्कण्ठाविरचितपदं मन्मुखेनेदमाह ॥ ११५ ॥ इस के बाद लेखक ने, अपने को आचार्य के दर्शन की उत्कटेच्छा बतला कर अन्त में जिस दिन सुगुरु के चरणकमलों का पुण्यजनक स्पर्श होगा वह दिन धन्य मानूंगा, इत्यादि कह कर पत्र समाप्त किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003389
Book TitleVignaptitriveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1916
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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