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गत्यौत्सुकेऽप्यणकिटणकीदुर्गयोः स्थेयमेव _ पार्श्वस्वामी स इह विहृतः पूर्वमुशिसेव्यः । जाग्रदूपे विपदि शरणं स्वर्गिलोकेऽभिवन्द्य
मत्यादित्यं हुतवहमुखे सम्भृतं तद्धि तेजः ॥ १७ ॥ उत्पत्यास्मात्पणम विपुले तुङ्गिआशैलशृङ्गे ।
रामं कामं श्रमणवृषभं बोधितारं पशूनाम् । तत्सम्बुद्धान्वयजशिखिनो मूर्तिमस्याभिषिच्य
पश्चादद्रिग्रहणगुरुभिर्जितैर्नर्तयेथाः ॥ ४८ ॥ तुङ्गिआ-शैल से चले बाद कुछ दूर जाने पर गुजरात की रमणीय भूमि आ जाती है और सब से प्रथम अभ्युदय और लक्ष्मी का मंदिर ऐसा सुरत-बंदर मिलता है। विनयविजयजी की तरह मेघविजयजी ने भी सुरत का वैभवशालि वर्णन किया है। लिखा है कि वहाँ के धनी धावकों ने श्रीविजयप्रभसूरि के प्रवेश-समय में याचकों के प्रति स्वर्णधारा बर्षाई थी।
सभ्येभ्यानामहमहमिकावृद्धसौधाग्ररत्नै__ रातिथ्यं ते बहु विरचयन्मानयेस्तत्पुरापि । हैमैः श्राद्धवज इह गुरोरागमे मार्गणानां
धारापातस्त्वमिव कमलान्यभ्यवर्षन्मुखानि ॥ ५२ ॥ सुरत के बाद, तापी, नर्मदा, भृगुपुर (भरूच ), मही नदी, हरिगृहपुर (?) और साबरमती का एक एक पद्य में उल्लेख कर, फिर सिद्धशैल (सिद्धाचल-शत्रुजय ) का वर्णन किया है। उस के बाद एक दम द्वीपपुरि ( दीव बंदर ) का वर्णन प्रारंभ होता है। इस के वर्णन में कवि ने बहुतसा स्थान रोका है । नगर के वर्णन बाद आचार्य का गुणगान और संक्षिप्त तया उन का जीवनचरित कहकर
१ यह 'अणकिटणकी ' कहां पर है इस का पता नहीं लगा।
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