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ऊपर के इन श्लोकों से पाठकों को 'इन्दुदूत' नामक विज्ञप्तिलेख के स्वरूप का ज्ञान हो गया होगा। अब एक ऐसे ही दूसरे लेख का कुछ परिचय कराया जाता है।
महोपाध्याय श्रीमेघविजयजीका मेघदूतसमस्यालेख । वाचक श्रीविनयविजयजी के समकालीन और उन्हीं के जैसे उत्तम प्रकार के विद्वान् श्रीमेघविजयजी भी थे। इन्हें भी महोपा. ध्याय की पद्वी मिली थी। न्याय, व्याकरण, काव्य, ज्योतिष आदि अनेक विषयों पर इन्हों ने उत्तम कोटि के ग्रंथ रचे हैं। ये एक समय दक्षिण के औरंगाबाद नाम के शहर में वर्षाकाल रहे हुए थे। गच्छपति आचार्य श्रीविजयप्रभसूरि उस साल सौराष्ट्र के द्वीपबंदिर (दीव बंदर ) में विराजमान थे। महोपाध्याय श्रीमेघविजयजी ने औरंगाबाद से उस साल, आचार्य की सेवामें, जो विज्ञप्तिपत्र भेजा है वह भी 'इन्दुदूत' के ढंग का है । कालिदास के मेघदूत का अंतिमपाद ले कर और तीन पाद नये बना कर-अर्थात् मेघदूत की समस्यापूर्ति द्वारा-यह पत्र लिखा गया है । इस कारण इस पत्र का नाम भी लेखकने 'मेघदूतसमस्यालेख' ऐसा दिया है। इस में किसी स्वतंत्र दूत की कल्पना न कर उसी मेघ को दूत बनाया है। इन्दुदूत की तरह इस में भी, औरंगाबाद से दीवबंदर तक के बीच के प्रसिद्ध प्रसिद्ध स्थानों और शहरों का सुन्दर वर्णन किया गया है और तत्तत्स्थलों में मेघ को रहने-देखने के मिष से कविने अपना भौगोलिक और प्राकृतिक ज्ञान का परिचय दिया है । नमूने के तौर पर कुछ पद्य लीजिएस्वस्तिश्रीमद्भुवनदिनकृद्वीरतीर्थाभिनेतुः
प्राप्यादेशं तपगणपतेर्मेघनामा विनेयः । ज्येष्ठस्थित्यां पुरमनुसरन् नव्यरङ्ग ससर्ज
स्निग्धच्छायातरुषु वसति रामगिर्याश्रमेषु ॥ १ ॥ तस्यां पुर्यां मुनिगणगुरोर्विप्रयोगी स योगी
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