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________________ ६४ वे काव्य में, आबू से रवाना हो कर, सरस्वती नदी के तट पर बसे हुए सिद्धपुर पहुंचने का इन्दु से कहा गया है । वहां पर क्षण भर ठहर कर, फिर निमेषमात्र में, जगत्प्रसिद्ध राजनगर (अहम. दाबाद ) पहुंच जाने का उल्लेख है । कवि चन्द्र से कहता है कि वहां पर सब से पहले, समुद्र की कान्ता जो साबरमती नदी है, वह अपने पति के पुत्र ऐसे तुझ को आया हुआ देख कर, कल्लोलरूप भुजाओं से तुझे आलिङ्गन देने के लिये उपस्थित होगी। तत्रालोक्य स्वपतितनयं राजतेजोभिरामं दर्भाकूरच्छलपुलकिता त्वामुपस्थास्यतेऽसौ । आमूलाग्रं तरलिततनुर्वीचिहस्तैरुदस्तै दूरादालिङ्गितुमिव रसात्साभ्रमत्यब्धिकान्ता ।। ६५ ॥ अहमदाबाद उस समय बड़ा आबाद शहर था। जैनधर्म का वहां पर साम्राज्य सा छा रहा था। बड़े बड़े सेठों और धनाढ्यों के विशाल और उच्च भवनों के कारण प्रेक्षकों को कुबेर की अलका का और रावण की लंका का स्मरण होता था। अनेक क्रोडाधिपति इस नगर में रहते थे। यहां का एक विशाल घर बड़े गाँव के जैसा था और एक पाटक (पाडा-वाडा ) सहर के जैसा था । इस तरह इस नगर का कवि ने बहुत वर्णन किया है। देखिए लक्ष्मीस्तत्रारमति सततं भूरि कोटिध्वजानां गेहे गेहे बहुविधधनैः क्लृप्तनानास्वरूपा । दृष्ट्वा चैनां सुभगभगिनीं त्यक्तचाञ्चल्यदोषां चिन्तातीतं नियतमतुलं प्राप्स्यसि त्वं प्रमोदम् ।। ७३ ॥ एकैकोऽस्य ध्रुवमुडुपते ! पाटकोऽन्यैः पुराणां वृन्दैस्तुल्यो जनपदसमान्येव शाखापुराणि । वेश्मैकैकं पृथुतरमुरुग्रामतुल्यं तदस्य माहात्म्यं कः कथयितुमलं प्राप्तवाग्वैभवोऽपि ॥ ७४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003389
Book TitleVignaptitriveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1916
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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