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७९-८०-८१ इन तीन काव्यों में वटपद (बडौदे ) शहर का वर्णन है । इस नगर के मध्य भाग में, जहां चारों तरफ के रास्ते इकट्ठे होते हैं, २४ कमानों का एक बड़ा उच्च मण्डप है । इस के ऊपर ४ मंजिल हैं । अंतिम मंजिल पर चढ कर देखने से सारा बडौदा शहर और आस पास के दूर दूर तक के दृश्य दिखाई देते हैं । यह मण्डप श्रीविनयविजयजी के समय भी मौजूद था। वे इन्दु के प्रति, इस मंडप पर ठहर कर चारों दिशा के दृश्यों को देख ने के लिये कहते हैं कि---
मध्येऽस्त्यत्र प्रचुरसुषमो मण्डपोऽत्यन्ततुङ्ग
स्तत्र स्थित्वा चतसृषु दिशास्वीक्षणीयं त्वयेन्दो ! द्रष्टासि द्राक् श्रियमनुपमामस्य विष्वक्पुरस्य
रम्यं ह्येतच्छुचिरुचिचतुद्वारचैत्यानुकारम् ॥ ८१ ॥ बडौदे के बाद ४-५ काव्यों में कवि भरूच और उस के पास बहने वाली नर्मदा नदी का उल्लेख कर एक दम सुरत की शोभा का बर्णन करने लग गया है। सुरत उस समय बडी उन्नत दशा में था। सारे हिन्दुस्थान में वह सब से बड़ा व्यापार का स्थान था। उस समय उस में पृथ्वी के प्रायः सभी देशों के मनुष्य व्यापार करने के लिये आया जाया करते थे। सुरत की उस समय वह दशा थी जो आज बंबई की है। दूर दूर के देशों से, तापी नदी द्वारा सेंकडों जहाज आया जाया करते थे और सब प्रकार का माल लिया दिया जाता था। कवि इस शहर का बहुत कुछ वर्णन करता है। वहां के धनाढ्य और सम्मान्य जैनसमुदाय की बड़ी महिमा गाई गई है। लिखा है कि
यत्र श्राद्धास्ततसुमनसो विश्वमान्या वदान्याः
संख्यातीता अमितविभवाः प्रौढशाखाप्रशाखाः । कुत्राप्याद्याधरकजनिताः संस्थिताः कल्पवृक्षाः
प्रादुर्भूतास्तपगणपतिप्रौढपुण्यानुभावात् ॥ ९९ ॥
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