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________________ १२ ( आबू पहाड ) पर जाने के लिये कहता है। आबू पहुंचे बाद वहां के भिन्न भिन्न शृङ्गों का अवलोकन कर जगद्विख्यात - जैन- देवालयों में जाने का और उन में विराजित जिनेश्वरों की भव्य और शान्त मूर्तियों के वंदन पूजन करने का आग्रह करता है । तत्र श्रीमान् विमलवसतौ भाति नाभेयदेवः सेवायात त्रिदशनिकरः पूर्णपादोपकण्ठः । नेमिस्वामी दिशति च शिवान्यानतानां निविष्टः साक्षादिन्द्रालय इव बरे वस्तुपालस्य चैत्ये ॥ ५३ ॥ इन दोनों मंदिरों के अद्भुत और आश्चर्यकारक शिल्पकार्य का वर्णन कवि इस प्रकार करता है रूप्यस्वच्छोपलदलमयौ चित्रदोत्कीर्णचित्र चञ्चच्चन्द्रोदयचयचितौ कल्पितानल्पशिल्पौ । जीयास्तां तौ विमलनृपतेर्वस्तुपालस्य चोच्चौ प्रासादौ तौ स्थिरतरयशोरूपदेहाविव द्वौ ॥ १४ ॥ आबू के इन मुख्य और सुप्रसिद्ध मन्दिरों के देखने बाद भीमासाह श्रेष्ठि के बनाये हुए तथा खरतरवसति के मंदिर के देखने का भी कवि इन्दु से आग्रह करता है । अचलगढनाम के शिखर पर जो चतुर्मुख जिनप्रासाद है और जिस में प्रचुर सुवर्णमिश्रित बृहदाकार धातुमय जिनमूर्तियें हैं - जिन का कुल वजन १४४४ मन कहा जाता है - उन के देखने के लिये भी इन्दु को प्रेरणा की गई है और कहा है कि किञ्चिद्दुरे भवति च ततस्तत्र दुर्गोऽचलाख्यो मौलौ तस्मिन् विलसति चतुर्द्वारमुत्तुङ्गचैत्यम् । यादृक् तत्रोच्छ्रितमनुपम स्वर्णरीरी विमिश्र न क्ष्मापीठे क्वचिदधिगतं तादृगचचतुष्कम् ॥ ५९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003389
Book TitleVignaptitriveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1916
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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