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________________ प्रयोजन, उस के करने के लिये नम्र प्रार्थना, चंद्र में उसके करने की योग्यता, चंद्र का जातिमत्त्व, उस के पिता,भ्राता और भगिनी आदि कुटुम्बियों के किये हुए जगत् के उपकारों का वर्णन और प्रार्थना के भंग करने में उस की लघुता आदि बातों का बड़ा ही रसमय और हृदयग्राहि वर्णन है। देखिए, १० वें और ११ वें पद्य में कैसे नम्र और प्रिय वचनों द्वारा इन्दु का स्वागत और कुशलप्रश्न पूछा गया हैदिष्टया दृष्टः सुहृदुडुपते ! ऽस्माभिरद्यातिथिस्त्वं पीयूषोभृशमुपचरन् प्राणिनामीक्षणानि । पुण्यैः प्राच्यैः फलितमतुलै रस्मदीयैरुपेया-- नापुण्यानां नयनविषयं यत्प्रियः स्मर्यमाणः ॥ १० ॥ देहे गेहे कुशलमतुलं वर्तते कचिदिन्दो ! नीरोगाङ्गी सुभग गृहिणी रोहिणी तेऽस्त्यभीष्टा ? । अन्याः सर्वा अपि सकुशला दक्षजाः सन्ति पत्न्यः ? पञ्चाचिः शं कलयति हृदानन्दनो नन्दनस्ते ? ॥ ११ ॥ इस प्रकार कुछ कुशलप्रश्न पूछे बाद, थोडे समय तक ठहर कर मार्ग का श्रम दूर करने के लिये कवि इन्दु से कहता मार्गश्रान्तः क्षणमिह सुखं तिष्ठ विश्रामहेतो रुत्तुङ्गेऽस्मिन् शिखरिशिखरे दत्तपादावलम्बः । हृद्यः पद्माभिधवरसरःसम्भवस्त्वां समीरः सर्पन्नुच्चैः सुखयतु सखे ! केतकीगन्धबन्धुः ॥ १४ ॥ और फिर अपनी प्रार्थना सुनने तथा उस के करने में मन्दभाव न दिखाने के लिये कहता है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003389
Book TitleVignaptitriveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1916
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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