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दूसरे काव्य से ले कर सातवें काव्य पर्यंत-(६) पद्यों मेंजोधपुर-नगर का वर्णन हैयत्र व्योमव्यतिगशिखरेष्वर्हतां मन्दिरेषु
मूर्तीजैनीनयनसुभगाश्चन्द्रशालानिविष्टाः । दर्श दर्श विनयविनतोऽघोविमानावतारक्लेशं नासादयति निकरो हृद्यविद्याधराणाम् ॥ २ ॥
स्थास्नुः शुण्डायुध इव मदात्कुण्डलीकृत्य दन्तौ
कृत्वोत्तानावुपलरचितो यत्र हस्त्यद्रिशृङ्गे । स्वर्ग जेतुं नभसि रभसादारुरुक्षोरमुष्य
शृङ्गस्येव स्फुटयति महाधीरनासीरभावम् ॥ ७ ॥ आठवें और नववे काव्य में भाद्रपद की पूर्णिमा की रात्रि में चंद्र के देखने और उस का स्वागत करने का उल्लेख है।
तस्मिन् योधाभिधपुरवरे श्रीमदाचार्यपादा
देशान्मासांश्चतुर उषितो यो विनीतो विनेयः । साधुः सैष प्रहरविगमे भाद्रराकारजन्यां
प्राचीशैलोपरि परिगतं शीतरस्मि ददर्श ॥ ८ ॥ दृष्ट्वा चैनं स परमगुरुध्यानसन्धानलीन
स्वान्तः कान्तं तमिति रजनेः स्वागतं व्याजहार । सद्यः साक्षाद्गुरुपदयुगं नन्तुमुत्कण्ठितोऽपि
द्रागेतेन स्थितिपरवशो वन्दनां प्रापयिष्यन् ॥ ९ ॥ १० वे पद्य से कवि चंद्र को स्वागतादि वचनों के कहने का प्रारंभ करता है जो ३० वै पद्य में जा कर समाप्त होता है । इन २१ पद्यों में, स्वागत, कुशल प्रश्न, कुछ देर विश्रान्ति लेने का अनुरोध, अपना
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