________________
अत एव कवि का यह कथन देशविरुद्ध होने से दुष्ट गिना जाता है। तथापि, जिस प्रकार कविकुलतिलक कालिदास ने धूम, आग्नि, पाणि और पवन के समुदाय स्वरूप मेघ में, प्राणियों द्वारा पहुंचाने लायक संदेश के पहुंचाने की शक्ति का अभाव जान कर, लोकों की हृद्गत शंका को दूर करने के लिये
“कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेषु ।" लिख कर अपने कथन को युक्ति-संगत बतलाया है और उसे सभी ने स्वीकार भी किया है वैसे गुरुदेव के चरण कमलों में नमन करने की उत्कंठा वाले और स्थितिपरवशता के निमित्त अपना अभिलाष पूर्ण न कर सकने के कारण विहल हृदय वाले कवि का यह असंगत कथन भी विद्वानों को क्षेतव्य होना चाहिये। +
अब मैं इस 'इन्दुत'' के थोडे से पद्य यहां पर उद्धृत करता जिस से पाठकों को उस की रचना और शैली आदि का ज्ञान हो जायँ । इस का प्रारंभ कवि इस प्रकार करता है
स्वस्ति श्रीणां भवनमवनीकान्तपतिप्रणम्यं
प्रौढप्रीत्या परमपुरुषं पार्श्वनाथं प्रणम्य । श्रीपूज्यानां गुरुगुणवतामिन्दुदूतप्रभूतो
दन्तं लेखं लिखति विनयो लेखलेखानतानाम् ॥ १ ॥ + काव्यालंकार के रचयिता पुराण विद्वान् भामह ने अपने काव्यालंकार के प्रथम परिच्छेद में इस प्रकार के निर्जीव अथवा अशक्त प्राणियों को दूतादि बना कर भेजना — अयुक्तिमद् ' बतला कर भी अन्त में
यदि चोत्कण्ठया तत् तदुन्मत्त इव भाषते । तथा भवतु भूम्नेदं सुमेधोभिः प्रयुज्यते ।। यह कह कर, सुविद्वानों की ऐसी कृतियों तरफ उपेक्षादृष्टि की है।
१ यह प्रबन्ध बंबइ के, निर्णयसागर प्रेस की, काव्यमाला के चौदह वें गुच्छक में छपा है परंतु बहुत अशुद्ध और अव्यवस्थित है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org