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________________ विचार से कवि किसी रमणीय विषय को, काव्यरूप में गूंथन करने के लिये, ढूंढने लगा । विचार करते करते विज्ञप्ति का स्मरण हो आया। चंद्र को दूत बना कर, उस के द्वारा अपने विज्ञप्तिरूप संदेश को गच्छपति की सेवा में भेजने की कल्पना, कवि को बहुत ही रमणीय और उत्तम मालूम दी और तदनुसार, कालिदास के मेघदूत का अनुकरण करने वाला १३१ पद्यो का “इन्दुदत 'नाम का यह खण्ड-काव्य लिख डाला। जिन आचार्य के पास यह विज्ञप्ति भेजने की थी वे उस समय गुजरात के सुरत सहर में विराजमान थे* । इस लिये कवि ने अपने दूत-इन्दुको गन्तव्य-स्थान सुरत बताया। उपाध्यायजी गुजरात, काठियावाड और राजपूताना में अच्छी तरह विचरे थे इस लिये उन्हें रास्ते का ठीक ठीक हाल मालूम था। जोधपुर से सुरत तक के बीच में, सीधे रास्ते पर, निम्न लिखित प्रसिद्ध स्थलों और स्थानों के देखने का लोभ, चंद्र को दिखा कर कवि ने अपने मार्गज्ञान का सूचन किया है । कवि ने चंद्र प्रति कहा है, कि यहां से (जोधपुर से) दक्षिण की ओर चलते हुए प्रथम सुवर्णाचल (कंचनगिरि )-जो जा. लोर के पास है-आता है। उस के बाद सीरोही और आबूपहाड, वहां से सरस्वती के किनारे ऊपर का सिद्धपुर और फिर साबरमती के तट पर बसा हुआ गुजरात का राजनगर ( अहमदाबाद) आता है । अहमदाबाद के बाद लाटदेश का भूषणरूप बडौदा, नर्मदातटवर्ती भरूच और फिर तापी के तीर पर बसा हुआ सुरत मि. लता है। पाठकों को यह जान कर आश्चर्य होगा, कि जोधपुर से सीधे सुरत जाने का रेल-रास्ता भी आज वही है जो ढाई सौ पौने तीन सौ वर्ष पहले श्रीविनयविजयजी उपाध्याय ने अपने कल्पित दूत को बताया था। इस काव्य में, काव्य की दृष्टि से देशविरुद्ध का एक उल्लेखनीय दोष अवश्य है; क्यों कि जोधपुर से सुरत पश्चिम दिशा में न हो कर दक्षिण दिशा में है इस लिये चंद्र के उक्त स्थानों पर हो कर जाने की जो कल्पना की गई है उस का होना सर्वथा असंभव है, * इन्दुदूत में कहीं पर भी आचार्य के नाम का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है परंतु अन्यान्य साधनों से ज्ञात होता है कि ये आचार्य श्रीविजयप्रभसूरि थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003389
Book TitleVignaptitriveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1916
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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