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अपने ही हाथ से लिख कर भेजा करते थे अतः उन के पत्रों में, गृ. हस्थों के से चित्रादि नहीं होते थे। मुनियों के पत्र बाह्य सौन्दर्य से शून्य होने पर भी आन्तरिक गुणों के कारण विशेष महत्त्व वाले होते थे। पुराणे पुस्तक-भाण्डागारों में, खोज करने पर ऐसे पत्र बहुतायत से मिल सकते हैं परन्तु इन के वास्तविक स्वरूप से अभी तक कोई परिचित न हो सकने के कारण ये यों ही भाण्डारों में पडे पडे सड रहे हैं और नष्ट हो रहे हैं। साहित्य-रसिक प्रवर्तक श्रीमत्कांतिविजयजी महाराज-जो पाटन के प्रसिद्ध भाण्डारों के उद्धार कर्ता हैं-ने अपने विशाल-शास्त्र-संग्रह में ऐसे अनेक पत्रों का संग्रह किया है और मुझे उन्हें देखने तथा प्रकट करने की आज्ञा दी है।
मुनियों के पत्र विशेष कर विद्वानों के लिये ही मनोरंजक और अवलोकनीय हुआ करते हैं। क्यों कि एक तो इन की रचना संस्कृत या प्राकृत (मागधी) में है और दूसरी बात यह है कि इन का लेख प्रौढ और काव्य की तरह आलंकारिक है । मुझे मिले हुए पत्रों में से बहुत से तो बडे पाण्डित्यपूर्ण हैं । पूर्व के साधु-यति बड़े बड़े वि. द्वान् हुआ करते थे; इस लिये वे अपने निर्वृति के समय में इस प्रकार का विद्या-विनोद किया करते और अपने गच्छपति के पास, पर्युषणादि जैसे विशेष प्रसंगों पर, ऐसे विज्ञप्ति-लेख लिख कर, अपना भक्तिभाव कहो या बुद्धि का वैभव कहो, प्रकट किया करते थे।
मुझे मिले हुए पत्रों में से बहुत से पत्र, तपागच्छ के अंतिम प्रभावक और प्रतिष्ठावान् श्रीविजयदेव, विजयसिंह और विजयप्रभ नाम के आचार्य-जो विक्रम संवत् १६५० से १७५० के बीच में विद्यमान थे-के समीप भेजे गये थे । इन के लेखक पं. श्रीला. भविजय, नयविजय, अमरचंद्र, महोपाध्याय विनीतविजय, विनयविजय, मेघविजय और रविवर्द्धन जैसे प्रवर पंडित और प्रसिद्ध ग्रंथकार हैं। कई पत्र तो ऐसे हैं जिन्हें यथार्थ में खण्डकाव्य या लघुकाव्य कहना चाहिए। किसी किसी पत्र में तो महाकाव्यों के सर्गों की तरह, जुदा जुदा विषयों के प्रकरण पाडे हुए हैं। इन
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