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लगभग पत्र का आधा भाग तो चित्रों से अलंकृत किया जाता था। बाद में, अच्छे लेखक के पास सुंदर अक्षरों में लेख-प्रबंध लिखाया जाता था जो किसी विद्वान् साधु या श्रावक का बनाया हुआ होता था।
SN वर्णन-विभाग । " चित्र-विभाग की तरह वर्णन-विभाग भी नाना प्रकार के वर्णनों से भरा हुआ होता था। यह वर्णन संस्कृत और प्राकृत (प्रचलित देशभाषा) दोनों प्रकार की भाषाओं से मिश्रित हो कर कुछ पद्य में और कुछ गद्य में लिखा जाता था । वर्णन-क्रम बहुत कर के इस प्रकार रहता था। आदि में तीर्थकर देव संबंधी स्तुति-पद्य, फिर जिस देश और गाँव में आचार्य विराजमान होते उसका आलंकारिक रूप से विस्तृत वर्णन, आचार्य के गुणों की प्रभूत-प्रशंसा, उन की सेवा उपासना करने वाले श्रावक-समूह के सौभाग्य का निरूपण, आचार्य के दर्शन करने की स्वकीय उत्कंठा का उद्घाटन, पर्युषणापर्व का आगमन और उस में बने हुए निज के गाँव के धर्मकृत्यों का उल्लेख, सांवत्सरिक दिन का विधिपूर्वक किया गया आराधन और स्वकृत अपराध के लिये आचार्य से क्षमा याचन; इत्यादि बातों का बहुत अच्छा और क्रम-पूर्वक उल्लेख किया जाता था । अंत में आचार्य को अपने क्षेत्र में पधारने के लिये विस्तार-पूर्वक नम्र विज्ञप्ति (प्रार्थना) की जाती थी और स्थानिक-संघ के अग्रगण्य श्रावकों के हस्ताक्षरपूर्वक पत्र की समाप्ति की जाती थी। इन पत्रों में धार्मिक इतिहास के सिवा राजकीय ऐतिहासिक बातें भी कितनीक रहती थीं जो प्रसं. गानुसार लिख दी जाती थीं।
OR मुनियों के विज्ञप्ति-लेख । - जिस तरह श्रावकों की तरफ से आचार्य के पास विज्ञप्ति-पत्र भेजे जाते थे वैसे मुनियों की ओर से भी गच्छपति की सेवा में स्व. तंत्र विज्ञप्ति-लेख लिखे जाते थे। मुनिजन प्रायः करके अपने पत्र,
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