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अपने गाँव में जो जो धार्मिक कार्य होते थे उन का भी उल्लेख, आचार्य को ज्ञात करने के लिये किया जाता था। साथ में आचार्य को अपने गाँव में आने के लिये और संघ को दर्शन देने के लिये बड़ी खूबी के साथ विस्तार पूर्वक विज्ञप्ति (प्रार्थना ) भी की जाती थी । इसी विज्ञप्ति के कारण इन पत्रों को विशेष कर "विज्ञप्ति-पत्र" कहा करते थे।
- विज्ञप्तिपत्र का स्वरूप । विज्ञप्ति-पत्र खास देखने और वर्णन करने लायक हुआ करते थे। इन के लिखने में बहुत सा खर्च और समय लगता था । इन का आकार ज्योतिषी की बनाई हुई जन्मपत्री के जैसा हुआ करता था। मजबूत और मोटे कागजो के १०-१२ इंच के चौडे टुकडे बना बना कर फिर उन्हें एक दूसरे के साथ सांध देते थे और इस प्रकार कागज का एक लंबा पत्र (बंडल) बनाया जाता था। ( मेरे देखने में जितने पत्र आये हैं उन में कोई कोई ६० फीट जितने लंबे हैं ! ) इन पत्रों में, प्रारंभ में, बहुत से चित्र चित्रित किये जाते थे। किसी किसी पत्रके चित्र तो बडे ही अच्छे सुंदर
और आकर्षक दृष्टिगोचर होते हैं । चित्र भिन्न भिन्न दृश्यों के आलेखित किये जाते थे। सब से प्रथम, बहुत कर के कुंभकलश और अष्टमंगल तथा चौदह महा-स्वप्न (जो तीर्थकर की मातायें देखती हैं) चित्रित किये जाते थे । फिर, राजा-बादशाहों के महल, नगर के बाजार, भिन्न भिन्न धर्मों के देवालय और धर्मस्थान ( मुसलमानों की मस्जीदें भी), कुंआ, तालाव और नदी आदि जलाशय, नट और बाजीगरादिकों के खेल, गणिकाओं के नत्य इत्यादि सब प्रकार के दृश्यों का आलेखन किया जाता था। पर्युषणा के दिनों में जैनसमाज के जो धार्मिक-जुलूस निकला करते हैं और जिन में श्रावक-समुदाय के साथ साधुजन भी रहा करते हैं, उस भाव को ले कर भी कितने ही चित्र लिखे जाते थे। साथ में जिन आचार्य के पास वह विज्ञप्ति-पत्र भेजा जाता था उन की व्याख्यान-सभा का चिन भी दिया जाता था। इस प्रकार,
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