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बनना चाहिए । इस के अतिरिक्त निविषमनस्क हो कर, संसार-भर के सभी प्राणियों के साथ, मानसिक, वाचिक और कायिक रूप से अपने किये हुए अपराधों की क्षमापना करनी चाहिए। अर्थात् वर्षे भर में किसी के भी साथ जो कुछ वैर-विरोध किया कराया हो उसे भूला देना चाहिए और स्वकृत अपराध की क्षमा मांगनी चाहिए । दूसरे मनुष्यने अपने साथ जो बुरा वर्ताव किया हो उसे भी विस्मरण कर सरल-हृदयी बनना चाहिए । जो मनुष्य इस प्रकार सांवत्सरिक-पर्व के दिन वैर का विस्मरण नहीं करता और निर्विषमनस्क नहीं बनता वह अर्हत् की आज्ञा का आराधक नहीं गिना जाता। श्रमण भगवान श्रीमहावीरदेव की इस पवित्र आज्ञा का पालन, उन के धर्मानुयायी, अपनी अपनी धार्मिक-योग्यतानुसार, प्राचीन काल से करते आये हैं।
जैनों के लिये यह पर्व, क्रिश्चियनों के बडे दिन और पारसियों के पटेटी दिन के जैसा उत्सव रूप और आनन्दप्रद है । इस पर्व के बाद सभी जैन अपने अपने परिचित धर्मबन्धुओं और धर्मगुरुओं को क्षमापना पत्र लिखते हैं और स्वकृत अविनय की नम्रता पूर्वक क्षमा मांगते हैं।
पूर्वकाल में डॉक का प्रबंध न होने से आज की तरह, हर एक मनुष्य, इस प्रकार के पत्र नहीं लिख सकता था तो भी गाँव के समस्त-संघ की ओर से एक ऐसा पत्र, दूसरे परिचित गाँव के संघ प्रति अवश्य लिखा जाता था।
जैनधर्म में, साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकारूप जो चतुविध-संघ कहा जाता है, उस में सब से बड़ा दर्जा आचार्य का है। संघ के स्वामी आचार्य गिने जाते हैं। आचार्य का मान संघ में उतना होता है, जितना एक राजा का अपने राज्य में हुआ करता है । इस लिये आचार्य के पास, जहां जहां उन के गच्छानुयायी और शिष्यादि होते थे उन सब स्थानों के संघों की तरफ से ऐसे क्षमापना विषयक पत्र खास तौर पर भेजे जाते थे। इन पत्रों में, साँवत्सरिक-क्षमापना के सिवा पर्युषणा के दिनों में
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