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और उन के आधार पर शंखलाबद्ध इतिहास तैयार किया जा स. कता है । इस प्रस्तावना का बहुत सा भाग ऐसे ही साधनो द्वारा लिखा गया है।
गत वर्ष में, पाटन के प्राचीन-भाण्डारों का ऐतिहासिक दृष्टि से अवलोकन करते समय वाडीपुर-पार्श्वनाथ के पुस्तक-भाण्डार में से इस पुस्तक की हस्तलिखित प्राचीन प्रति मेरे दृष्टि-गोचर हुई । पुस्तक देखते ही मुझे महत्त्व की मालूम दी और इसे छपवाने के लिये प्रेस-कॉपी तैयार कराई गई ।
पुस्तक उसी समय की लिखी हुई है जब कि यह बनाई गई थी । अर्थात् सं. १४८४ के माघ सुदि ८ मी के दिन इस की रचना पूर्ण हुई थी और १० मी के दिन की यह प्रति लिखी हुई है। पुस्तक पर लेखक का नाम नहीं है तो भी अनुमान से जाना जाता है कि जयसागरोपाध्याय के शिष्यों मे ही से किसीने यह लिखी होंगी। पुस्तक की स्थिति जर्णि हो गई है और प्रत्येक पृष्ट पर सेंकडों छोटे छोटे छिद्र पड़े हुए हैं । अक्षर सुंदर होने पर भी पढने में कठिनता अवश्य पडती है । जल्दी जल्दी लिखे जाने के कारण कहीं कहीं अक्षर भी छूट गये हैं जिनमें से कितने क पीछे से कीसी संशोधक ने पत्रों के किनारे पर लिख दिये हैं। पाठकों के अवलोकनार्थ, इस के अंतिम पत्र का फोटू पुस्तक के प्रारंभ में दिया गया है। शमस्तु ।
भाद्रपद पूर्णिमा। जैनउपाश्रय । -मुनि जिनविजय । (बडौदा ।)
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