________________
इस लेख और वर्णन से पाठक जान सकते हैं कि काँगड़ायानगर. को बहुत प्राचीन समय से जैनधर्म का तीर्थस्थल बना हुआ है। यद्यपि काल के कुटिल स्वभाव से वह प्राचीन प्रभुता आज सर्वथा विलीन हो गई है, वे बड़े बड़े मंदिर और प्रभावशाली प्रतिमायें नष्ट-भ्रष्ट हो गई हैं, तथापि ये अवशिष्ट मूर्तिये आज भी हमारे दिल में, गत-गौरव को फिर समुत्पन्न करती हैं। केवल इन का नाम सुन कर ही हमारी आंखों के सामने वे सब दृश्य खडे हो रहे हैं जिन का वर्णन इस त्रिवेणि में किया गया है।
क्या ही अच्छा हो यदि इस नाम-शेष तीर्थ का फिर पुनरुद्धार किया जाय । जो प्रतिमायें यहां पर अस्त-व्यस्त पड़ी हुई हैं उन्हें, एक सुन्दर मंदिर बनवा कर उस में स्थापित की जायें । पंजाब और मध्यप्रान्त के जैन-समुदाय का कर्तव्य है कि वह अपने निकट के इस महातीर्थ का उद्धार करें । उन के नजदीक में इस के जैसा एक भी कोई तीर्थस्थल नहीं है ।*
उपसंहार । विज्ञप्तित्रिवेणि की प्रधान तीन व्यक्तियों का अधिक-परिचय हो चुका । साथ ही प्रस्तावना का वक्तव्य भी पूरा हो चुका । इस प्रबंध और प्रस्तावना के अवलोकन से पाठकों को जैनधर्म की प्राचीन-प्रभुता, सामाजिक-स्थिति, आचार्यों की शासनप्रणाली, साधुओं का सांप्रदायिक नियमन, श्रावकों का धर्मप्रेम इत्यादि अनेक बातों का ज्ञान हो सकता है। विद्वान् लोक यह भी जान सकते हैं कि प्राचीन पुस्तकों और पुस्तक-भाण्डागारों का यदि ध्यान पूर्वक निरीक्षण किया जाये तो उन में से जैन इतिहास के लिये विश्वनीय साधनों का विपुल-भाण्डार, अनेकानेक रूप में प्राप्त हो सकता है
* इच्छा तो थी, कि जिस तरह नगरकोह का अधिक परिचय दिया गया है वैसे और भी उन स्थानों का परिचय लिखा जायें, जिन का उल्लेख इस त्रिवेणि में किया गया है। परंतु बहुत कुछ प्रयत्न करने पर भी उनके विषय में कुछ नहीं ज्ञात हो सका।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org