________________
१२
९५४ या १०५४ हो सकती है। इस में *अभयचंद्र का नाम आया है
और इन्द्रचन्द्र के पहले के ५ वे राजा का यह नाम था इस लिये इस की साल इ. स. १०२८ अगर १०८१ से ७५-१०० वर्ष पहले हो सकती है; अर्थात् ९५० के लगभग यह हुआ होगा।" ____ " दूसरी जो जैनप्रतिमा है वह इसी मूर्ति के पास में रक्खी हुई है और बैठी हुई स्त्री की आकृति की सी है। इस के भी दोनों हाथ खोले में रक्खे हुए हैं और गद्दी पर दो हाथ वाली स्त्री की आकृति की हुई है कि जिस के दक्षिण तरफ एक हाथी खडा है।" __ " ये जिनमूर्तियां कमान की दिवालों में बड़ी मजबूती के साथ लगादी गई हैं । परंतु मैं समझता हूं कि यह कमान पीछे से बनाई गई है; क्यों कि इस के चारों थंभे भिन्न भिन्न प्रकार के हैं। इन मूर्तियों का इस लिंग-देव के साथ कोई संबंध नहीं है । इस से ये मूर्तिये किसी अन्य जगह से लाकर यहां पर रख दी गई हैं । यद्यपि, वर्तमान समय में काँगड़े मे कोई जैन नहीं है परंतु पहले दिल्ही के बादशाहों के हाथ नीचे दिगंबर-जैन यहां की दिवानगिरि किया करते थे । इस से पिछले जमाने में यहां पर जैन लोक अवश्य रहा करते होंगे।"
आर्कीयोलोजिकल सर्वे ऑव इन्डिया की सन् १९०५-०६ की एन्युलपिोर्ट ( Arch. Sury. of India, Annual Report 1905-06 ) के १६ वे पृष्ठ पर भी इन मूर्तियों का संक्षेप में इस प्र. कार उल्लेख किया गया है:___“(किले में ) अंबिका के मंदिर की दक्षिण की ओर दो छोटे छोटे जैनमंदिर हैं जिन के द्वार पश्चिम दिशा में बने हुए हैं। एक मं. दिर में केवल गद्दी ही का भाग अवशिष्ट है जो तीर्थकर की मूर्ति का होना चाहिए । कनींगहाम के कथनानु सार-जैसा कि उन्हों ने
* जनरल कनींगहाम ने अभय चंद्र को राजा समझा है परंतु यह उन की भूल है। यह राजा का नाम नहीं है परंतु आचार्य का नाम है। 'अभयचंद्र' शब्द के पहले स्पष्ट सूरि शब्द लिखा हुआ है और उन का गच्छ भी 'राजकुल' बताया गया है । डॉक्टर बुल्हर ने भी यही लिखा है । देखो आगे के पृष्ठ पर का लेख ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org