SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भू-तल में लीन हो गये हैं। परंतु, तो भी इन के स्मृति-चिह्न कुछ कुछ अब भी विद्यमान हैं । कुछ प्राचीन जिनमूर्तियाँ आज भी, इस पूर्वकालीन वृत्तांत की सत्यता को स्पष्ट प्रकट कर रही हैं । गवर्नमेंट के पुरातत्त्व-विभाग की कृपा से हमें हमारे इन अवशिष्ट कीर्तिचिह्नों का थोडा बहुत पता लगता है। गवर्नमेंट के पुरातत्त्व-विभाग के डायरेक्टर जनरल सर ए. कींगहाम सी. एस् , आई, (Sir A. Cunningham, C.S.I Director General, Archäological Survey of India ) साहब ने अपनी आर्कियोलॉजीकल सर्वे ऑव इंडिया की सन् १८७२-७३ की रीपाट के ५ वे भाग में ( Archeological Survey of India. Reports 1872-73, Vol. V.) काँगडा का संक्षिप्त प्राचीन इतिहास और वहां की प्राचीन इमारतों का कुछ हाल लिखा है। इस में उन जिनमूर्तियों का भी उल्लेख है जो वर्तमान में वहां पर विद्यमान हैं। किले में के प्राचीन देवालयों का वर्णन करते हुए (पृष्ठ १६३ में ) लिखा है किः “किले के अंदर जो छोटे छोटे देवालय बने हुए हैं वे कीर. ग्राम के वैजनाथ और सिद्धनाथ के बड़े मंदिरों के जैसे ही हैं । इन की दिवालों का दृश्य बहार से बहुत कुछ शोभा दे रहा है। इन के अंदर एक भी स्तंभ नहीं लगाया गया। केवल चौकोने कमरे बने हुए हैं। इन के विषय में न कोई कीसी प्रकार के लेख ही मिले हैं और न कोई दंतकथायें ही जानी गई हैं। इन मंदिरों में, एक पार्श्व. नाथ का मंदिर है जिस में आदिनाथ की बड़ी भव्य जिनप्रतिमा स्थापित है। इस प्रतिमा की गद्दी ऊपर एक लेख है जिस की मिति संवत् १५२३ अर्थात् इस्वीसन् १४६६ की है । यह लेख प्रथम संसारचंद्र राजा के समय का है । कालीदेवी के मंदिर में भी पहले एक लेख था ।......मैं ने जब इस मंदिर की मुलाकात ली तब मुझे यह लेख नहीं मिल सका। इस के विषय में किसी ने मुझ से कोई हाल भी नहीं कहा । सौभाग्य से, इस लेख की दो नकलें मेरे पास हैं, जो सन् १८४६ में मैंने अपने हाथ से लिख ली थीं । इस की मिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003389
Book TitleVignaptitriveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1916
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy