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वर्तमान समय में नगरकोट्ट या काँगडे में एक भी मनुष्य जैन नहीं है। ठीक ठीक हालत में कोई जैनमंदिर भी नहीं है । जैनसमाज मैं से कोई यह जानता भी नहीं, कि पूर्वकाल में यह स्थान हमारा बड़ा तीर्थभूत था, दूर दूर का जैनसमाज इस की यात्रा करने के लये आया करता था, सैंकडों जैनों का यह वास स्थान था, रूपचंद्र जैसे नृपति के बनवाये हुए जिनभुवन से अलंकृत था और नरेन्द्रचंद्र जैसा राजा जैनधर्म के साथ सहानुभूति रखता तथा जिनमूर्तियों का भावपूर्वक पूजन किया करता था । न जाने हमारे ऐसे कितने कीर्ति चिह्नों पर अंधकार के और विस्मरण के थर पर थर जमे हुए हैं- पट पर पट चढे हुए हैं ।
इस त्रिवेणि से ( और परिशिष्ट नं. १ वाले “ नगरकोट्टु चैत्यपरिपाटिस्तवन" से) ज्ञात हो रहा है कि पंदरहवीं शताब्दी के अंत में यहां पर श्वेताम्बरसंप्रदाय ही के बड़े बड़े ४ जिनमंदिर थे । इन के सिवा दिगम्बर संप्रदाय के भी कुछ मंदिर अवश्य होंगे । क्यों कि जनरल ए. कनींगहाम ( General A. 'Cunningham ) के कथन से, जो कि आगे लिखा जायगा, जाना जाता है, कि बादशाही जमाने में यहां की दिवानगिरि दिगंबर जैन किया करते थे । इस से संभव है कि यहां पर दिगंबर जैनों की भी वसति और कुछ मंदिर अवश्य होंगे ।
इस त्रिवेणि में, नगरकोट्ट के जिन ४ जिनमंदिरों का वर्णन है उनमें का आज एक भी विद्यमान नहीं है । वे न जाने कब ही के
X राजा रूपचन्द्र इ. स. १३६० में विद्यमान था । फिरोज तोगलकने इस वर्षमें जब काँगड़ा पर चढाई की थी तब उसका सामना करने वाला राजा रूपचंद्र ही था । जनरल कनींगहामने आर्कि० सर्वे ० रीपोर्ट की ५ वीं जिल्द में, ( पृ० १५२ पर ) त्रिगर्त - देश के राजाओं का एक कोष्टक दिया है जिस रूपचन्द्र के बाद ७ वाँ नंबर नरेन्द्रचंद्र का है और उस की आनुमानिक मिति १४६५ इस्वी दी है जो विक्रम संवत् १५२१ के बराबर होती है । पर नरेन्द्रचन्द्र की ठीक तारीख, इस त्रिवेणिपर से, वि. सं. १४८२ की निश्चित होती है ।
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