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________________ करते थे। इन्हीं नामों से इस वि. त्रि. में भी इस का उल्लेख किया गया है (पृ० २३ और २९. ) नगरकोट्ट का दूसरा पुराना नाम सुशर्मपुर भी था (देखो पृ. २३ तथा ४०)। यह नाम, कोरग्राम-जो काँगड़ा से २५ मैल दूरी पर ईशान कौन मे हैं-के शिववैजनाथ के प्रसिद्ध मंदिर की पुरानी प्रशस्तियों में भी नजर आता है । ऐसा प्रती होता है कि शहर का नाम नगरकोट्ट या सुशर्मपुर था और किले का नाम 'कंगदकदुर्ग था। इसी 'कंगदक' का रूपान्तर वर्तमान में 'काँगड़ा' के रूप में परिणत हो गया है। 'काँगड़ा' का किला पहले बडा रवन्नक पर था । कटौच जाति के राजपूत, जो कि असली सोमवंशी क्षत्रीय थे, इस किले पर चिर काल से अपना अधिकार रखते थे। कहा जाता है, कि महाभारत के, विराटपर्व के, ३० वें अध्याय में, दुर्योधन की ओर से विराटनगर पर चढाई ले जाने वाले त्रिगर्तदेश के जिस सुशर्मनामक राजा का जिक्र है उसी ने इस नगर को बसाया था और अपने नाम की स्मृति के लिये इस का नाम “ सुशर्मपुर" रक्खा था । कटौचराजपूत इसी सुशर्म राजा की संतति हैं । म्लेच्छों के अत्याचारी आक्रमणों के सबध यह नगर अनेक वार उध्वस्त हुआ और फिर बसा । परंतु इंग्रेजीराज्य के प्रारंभ बाद यह स्थान सदा के लिये गौरवशून्य हो गया। * देखो, Epigraphia Indica, Vol. I, XVI. + विज्ञप्ति-त्रिवेणि के पृष्ठ ४२ पर नगरकोट्ट की आदिनाथ भगवान की मूर्ति का जो ऐतिय वृत्तांत कहा गया है उसे भी इस कथन से पुष्टि मिलती है । क्यों कि वहां पर भी लिखा गया है, कि नेमिनाथ ( २२ वें ) तीर्थकर के समय मे सुशर्म नाम के राजा ने इस मूर्ति की स्थापना की थी। संभव है कि नगर की और इस प्रतिमा की एक ही साथ स्थापना हुई हों। परंतु इस विषय में इस त्रिवेणि के सिवा और कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। इस लिये इस बात की सत्यता सिद्ध करने की चेष्टा करना निरर्थक है। तथापि इतना अवश्य सत्य है कि यह मूर्ति थी बहुत प्राचीन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003389
Book TitleVignaptitriveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1916
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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