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पुत्रों की सहायता से इन पर आक्रमण किया । चाचा और मेरा मारे गये और चाचा का पुत्र इक्का भाग कर माँडू के बादशाह महमूद की शरण में चला गया । जगरामसिंह (ऊदावत )
इसका जन्म वि० सं० १६६६ में रास ठिकाने में हुआ था । इसका पिता विजयराम सवाई राजा सूरसिंह की सेवा में रहता था । यह बड़ा महत्त्वाकांक्षी था । युवावस्था में इसे नया ठिकाना स्थापित करने की प्रबल आकांक्षा हुई । विक्रमी सं० १७३५ में बर के पूर्व में जगरामगढ़ नामक दुर्ग बनाया और अजमेर के शाही खालसे को तंग करने लगा । इससे तंग होकर अजमेर के सूबेदार
संधि कर के अपने पास बुला लिया। अजमेर में रह कर इसने मेरों व मेवों के उपद्रव को शान्त किया । तत्पश्चात् दिल्ली चला गया। वहां कुछ दिन रहने के बाद मयूर के मारने की शिकायत में एक यवन का हाथ काट डाला और दिल्ली को छोड़ कर उदयपुर चला श्राया । तत्कालीन महाराणा ने इसको जागीर देनी चाही परन्तु इसका ध्यान मारवाड़ के बालक महाराजा अजीतसिंह की तरफ आया, अतः यह मारवाड़ में श्रा गया और महाराजा अजीतसिंह की सेवा में रहते हुए अनेक युद्धों में भाग लिया । वि० सं० १७६५ में महाराजा अजीतसिंह ने इसको नीमाज का ठिकाना इनायत किया। वि० सं० १७६७ में इसका देहावसान हो गया ।
जफरजंग ( खानखाना जफरजंग ) -
यह बादशाह मुहम्मदशाह के विश्वासपात्र व्यक्तियों में था और उस समय पंजाब और लाहौर का सूबेदार था । सर बुलन्द खां के विरुद्ध गुजरात ( अहमदाबाद ) पर आक्रमण करने का प्रस्ताव बादशाह ने इसके सम्मुख भी रखा था किन्तु इसने अपनी असमर्थता प्रकट कर अस्वीकार कर दिया । जफरयारबर खां
यह शाही दरबार का मुखिया था । जिस समय सर बुलन्द खां के विद्रोह को दबाने की वार्ता खास दरबार में चली, यह भी खास दरोगा के पद पर था और दरबार में उपस्थित था । बादशाह ने सर बुलन्द खां के विरुद्ध अहमदाबाद पर आक्रमण करने का इसको आदेश दिया, किन्तु इसने अस्वीकार कर दिया ।
जमालअली खां ( जमाल खां ) -
यह सर बुलन्द की सेना का सेनापति था । श्रहमदाबाद के युद्ध में, जो महाराजा अभयसिंह के साथ हुआ था, इसने बड़ी वीरता दिखाई थी । यह
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