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________________ { २४ ] दूसरो कई भाषाओं का प्रयोग भी अलग-अलग उदाहरण के रूप में किया है, जो कवि के पाण्डित्य-प्रदर्शन का द्योतक है । मुख्यतः ग्रंथ की भाषा राजस्थानी ही है, जिसमें संस्कृत के तत्सम और तद्भव दोनों प्रकार के शब्दों का प्रयोग हना है । साथ ही राजस्थान के समीपवर्ती क्षेत्रों जैसे पंजाबी, सिंधी, मराठी आदि के शब्द भी यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होते हैं। जिस खड़ी बोली का परिमार्जित रूप आज हमारे समक्ष है, चारण कवि ने उसकी झलक दवावैत के अन्तर्गत दे दी है जो महत्त्वपूर्ण है । निम्न उदाहरण देखिये सिकार की चढ़ाई। जिस बखत हवालगीरू नै सलाम बजाय असवारी का सराजांम सब हाजर किया। किस किस तवह के कहि बताय । घोड-बहलि माफे इक्के खासे सुखपाळ, मेघाडंबर होदूं मैं गजराज । सामू मैं झळस अनेक खास-वरदारू नै धारि परिपंखी सजि पाए । मीर-सिकारी तिस बखत स्री महाराज सबज पौसाक पहरि । आखेट व्रत के प्रावध धारे तीसरे नगारे के डंके रकेब पाव धारे । बाज राज पारोह कैसे दरसावै । सूरज सपतास का सा सरूप नजर प्राय । कवि ने प्रसंगानुसार वस्तुओं की लम्बी सूची तथा नामों की आवृत्ति भी की है। कहीं-कहीं ग्रंथ में पात्रों के नामों के स्थान पर उनके नाम के पर्यायवाची रख दिये गये हैं, जैसे समुद्रसिंह के नाम के स्थान पर समुद्र के पर्यायवाची रतनागर (रत्नाकर) शब्द रख दिया गया है ___ जुड़े 'रतनागर' भीम सुजाव, सुमेरसिंह के लिये सुमेरु पर्वत का पर्याय 'गिरमेर' शब्द का प्रयोग कर दिया विढे 'गिरमेर' समोभ्रम 'वैरण' इसी प्रकार चन्दनसिंह के लिये मलियागिर (मलियागिरी) प्रयुक्त हआ है। सुत 'मलियागिर' 'ऊदल' साह कई स्थानों पर नाम के केवल आधे भाग का ही प्रयोग किया है, या नाम उलट कर रख दिया गया है जैसे उदयभांण नाम के स्थान पर केवल भांण शब्द ही लिख दिया है भटी इम 'भाण' बखांणत भाण सू. प्र., भाग २, पृष्ठ १६६ से २०४ तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003388
Book TitleSurajprakas Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSitaram Lalas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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