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________________ । २५ ] निम्न उदाहरण में सुरतांणसिंह के लिये केवल 'सुरतांन' और पदमसिंह के लिये केवल 'पदम' ही रख दिया है-- 'जुड़े 'सुरताण' 'पदम' सुजाव' सू.प्र.भाग ३, पृ. १४५ निम्न उदाहरण में 'उमेदसिंघ' के स्थान पर उसका उलटा 'सींघ उमेद' प्रयुक्त हुआ है जुड़े खग गैद जहीं तळ जोड़। 'अनावत' 'सींघ उमेद' अरोड़ ॥ सू. प्र. भाग ३, पृ. १२२ अल्पार्थ का प्रयोग अवज्ञा, मान-प्रतिष्ठा व प्रेम-प्रदर्शन के लिये होता है, जिसका प्रयोग कवि ने बाहुल्यता से किया है, जैसे केसरीसिंह पुरोहित के लिये कवि ने 'केहरियौ' लिख दिया है जो अवज्ञासूचक नहीं है सज सिवड़ां पति दारण सूर , पिरोहित 'केहरियो' रस पूर । सू. प्र. भाग ३, पृ. १६१ अल्पार्थ के साथ ही महत्त्ववाची नामों का प्रयोग भी बराबर मिलता है, जैसे इसी केसरीसिंह के लिये ही 'केहर' महत्त्ववाची के रूप में प्रयुक्त हुआ है-- ___ददौ इण 'केहर' रौ दइवाण । सू. प्र. भाग ३, पृ. १६१ इसी प्रकार अन्य व्यक्तिवाचक शब्द के भी महत्त्ववाची शब्द प्रयुक्त हुए हैं, जैसे राजसिंह-राजड़, कुसळसिंह-कुसळेस, पृथ्वीसिंह-पीथल, प्रतापसिंह-पातल आदि। ग्रंथ में नामों की अत्यधिक तोड़-मरोड़ हुई है, चाहे वे किसी मनुष्य के नाम हों अथवा किसी स्थान विशेष के। एक ही नाम के अनेक रूपभेद प्रयुक्त हुये हैं, जैसे महाराजा अजीतसिंह के लिये कवि ने निम्न रूपभेदों का प्रयोग किया है अगजीत, अजण, अजन, प्रजन्न, अजमल, अजमलि , अजमल्ल, अजमाल, अजा, अजीत, अज अजी। इसी प्रकार महाराजा अभयसिंह के लिये-- अभपत, अभपति, अभयपती, प्रभमल, अभमल्ल, अभमाल, अभरज, अभसाह, प्रभा, अभियौ, प्रभ, अभपति, अभैमल, अभमाल, अभयसिंह, प्रभसाह अभसिंघ, अभैसींघ, प्रभो। उक्त विवरण से स्पष्ट है कि ऐसे स्थलों को राजस्थानी भाषा-विज्ञान, व्याकरण, राजस्थानी संस्कृति आदि के पूर्ण ज्ञान के बिना समझना दुरूह हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003388
Book TitleSurajprakas Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSitaram Lalas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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