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[ २२ ] ४० सोरठा - यह एक मात्रिक छंद है। समूचे ग्रंथ में इसको संख्या १२ है। ४१ हणूफाल - यह एक मात्रिक छंद है। ग्रंथ में इसकी संख्या २५५ है ।
प्रकृति - चित्रण मध्य युग में कवियों का ध्यान प्रबन्ध काव्यों के रचने की ओर नहीं गया। वीर काव्य-धारा के जो नाम मात्र प्रबन्ध काव्य रचे गये उनमें प्रकृति प्रायः उपेक्षित रही है। इन ग्रन्थों में इतिवृत्तात्मकता, युद्ध-वर्णन, युद्धसामग्री, शौर्यचित्रण, योद्धाओं तथा अन्य वस्तुओं की लम्बी सूचियाँ ही अधिक मिलती हैं । साज-सज्जा, राजसी ठाठ-बाट आदि की ओर ही कवियों का झुकाव अधिक रहा है। प्रकृति का थोड़ा बहुत रूप मिलता है, वह एक परम्परागत शैली का अनकरण मात्र है। इस ग्रन्थ के रचयिता कविराज करणीदान भी प्रकृति का बिम्ब ग्रहण करने में असमर्थ रहे हैं ।
उद्यानों का वर्णन करते हुए कवि ने अनेक वृक्षों के नाम दिये हैं। निम्न उदाहरण से स्पष्ट है
अंगूर सरदं फळी अनेक बेलि | बेदांन दाखां बेदांन प्रनार । चिलकोचे बेह और सेबूका विस्तार । स्रीफळ विदांम ।
और नींबू के लूंब । कमळा रेसमी नारंगी पैबंदूका हूनर अदभूत । उक्त वर्णन से कवि की असावधानी प्रकट होती है । सेव, नारियल, बादाम आदि का जोधपुर के उद्यानों में होना असम्भव था और इस समय भी ये वृक्ष यहां नहीं पाये जाते हैं । अतः यह परम्परागत शैली के अनुकरण करने का परिचायक है । यहां पर कवि वृक्षों की नामावली न देकर प्रकृति के स्वाभाविक दृश्य अंकित कर सकता था । कई स्थानों पर कवि ने अतिशयोक्तिपूर्ण चित्रण भी किया है। यथा
अभै सागर, बाळ समंद दोऊ, मान सरोवर जैसे। अम्रित के समुद्र तसे लहरूं के प्रवाह छाजे ॥
जिनका रूप देखे से छीर समुद्र का गुमर भाज। इन छोटे तालाबों की तुलना क्षीर सागर से करदी है जो अतिशयोक्तिपूर्ण है। यह सब होते हुए भी कवि ने कहीं-कहीं प्रकृति का स्वाभाविक चित्रण भी किया है। यथा
सघन गंभीर प्रारांमूं का पार नहीं प्राव । माफताफ का तेज जिसको छांह भेद जमीन लग न जावै।
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