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________________ [१३] प्रहे पनि निज करग, नजर कमज्ज निहार। रहै एक प्रोसरा, एम पतिसाह उचार। तद मुसलमान हिंदू तणी, प्रासंग किणहि न प्राविया । दईवाण देखि असपति दुचित,'अभमल' पान उठाविया । सू.प्र. भाग २, पृ. २४५, २४६ बीड़ा ले बोलियो, कमध धात मुंछां कर। उछब करी असपती, सोच मति धरौ दिलेसुर । मारि सीस मोकळ, काय पकड़े पोहचाऊं। अजळ भाजि ऊबरै, मुगळ दळ गिरद मिळाऊं। अहमदाबाद हूँता असुर, एक दिवस मझि ऊथल । बिण पत्रां रूख जिम सिर विलंद, कर दिली दिस मोकळं। सू.प्र. भाग २, पृ. २४७ स्वाभिमानी : यद्यपि महाराजा अजीतसिंह ने बादशाह मुहम्मदशाह से संधि कर ली थी और उसके अनुसार महाराजकुमार अभयसिंह दिल्ली गए थे। किन्तु वे पूर्णरूप से स्वाभिमानी थे । एक समय जब ये बादशाह मुहम्मदशाह के दरबार में गये और बादशाह के बिलकुल समीप पहुंचे तो बादशाह के एक अमीर ने इन्हें रोक दिया, इस पर इन्होंने अति कोधित होकर अपने स्वाभिमान की रक्षक कटार निकाली। उसी समय बादशाह ने तुरन्त आगे बढ़ कर अपने गले का मोतियों का हार इन्हें पहना दिया और बड़ी कठिनाई से इनके क्रोध को शान्त करने में सफल हुा । यदि वह ऐसा नहीं करता तो वही दृश्य उपस्थित होता जो बादशाह शाहजहाँ के दरबार में अमरसिंह राठौड़ द्वारा हुआ था। कवि ने उनके इस गुण का चित्रण इस प्रकार किया है एक समै 'अभमाल', एम प्रावियो पुजाए। दुझल वार दूसरी, चढ़ण कटहड़े चलाए। अनवह चढं अमीर, साहजादां नह मौसर । उठ चढ़ धर धोम, बहसि 'अभमाल' बहादर । गज तजे डाण अन पह गुमर, तेज साह इसड़ो तठे। प्रकियो असुर तिण पर 'प्रभ', जमदढ़कर धरियो जठं ।। पेखि रोस पतिसाह, माळ मोतियां समप्पं । बगसी भेजि सताब, प्रांरिण माळा सुज अप्पं ।। मीर तुजक मारिवा, धिक्ष जमदढ़ कर धार। दुझल खांन दौरांस, पटाझर जिम पूतार ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003388
Book TitleSurajprakas Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSitaram Lalas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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