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यद्यपि सैयद बन्धु बदला लेना चाहते थे किन्तु महाराजा प्रजोतसिंह की
सलाह के कारण वे उधर नहीं बढ़ सके
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सुरण बयर इम यदांग, उर धिखै क्रोध उफांरण | दिल मांहि लागो दाह, 'अजमाल' कुरब उथाह ! सो लोप न सके सैद, कथ कोध पहलां कैद । कथ कहै तजै करूर, जो हुकम पह मनजूर ।
सू.प्र. भाग २, पृ. ८७,८८
मेवाड़ के महाराणा जयसिंह और उनके पुत्र अमरसिंह में परस्पर गृहकलह होने के कारण महाराणा भयभीत होकर मारवाड़ की ओर मा गये और महाराजा अजीतसिंह के पास सहायता का पत्र भेजा । उस समय जोधपुर पर श्रीरंगजेब का अधिकार था और महाराजा अपने पैतृक राज्य के लिए जूझ रहे थे, किन्तु राणा की सहायता करना अपना कर्त्तव्य समझ कर दुर्गादास राठौड़ की अध्यक्षता में २५ हजार सशक्त सेना भेज कर पिता-पुत्र में संषि करवा दी और महाराणा को पुनः मेवाड़ के सिंहासन पर आसीन किया ।
रांग राज तिल वार, जुगति धर वेध लगे जदि । 'अमर' कुमर मुरड़ियाँ, तंत ऊथ दियो तदि । जदि आयो जैसिंघ, सरण कमधां तदि सब्बळ । रांग मदति महाराज, दीघ 'अगजीत' सबळ दळ | तदि रांग 'जसौ' चाढ़ तखति, कंवर नमे बांध करां । 'जसराज ' तर कीधो 'श्रजे', प्रांक एह उदिया पुरां ।
सू.प्र. भाग २, १.३६ इस प्रकार कवि ने महाराजा को किसी के संकट के समय में सहायता देने वाला बताया है ।
कुशल राजनीतिज्ञ :
नागौर के राव इन्द्रसिंह का पुत्र मोहकमसिंह महाराजा अजीतसिंह के विरुद्ध बादशाह फर्रुखशियर को बहकाता था, अतः महाराजा ने भाटी अमरसिंह के साथ कुछ सरदारों को गुप्त रूप से मारवाड़ से दिल्ली भेजा और मोहकमसिंह को मरवा डाला । इसके अतिरिक्त दिल्ली के तख्त पर जितने भी बादशाह सैयद भाइयों ने बैठाये, उनके लिए उन्होंने महाराजा की मंत्रणा ली, अतः ये कुशल राजनीतिज्ञ सिद्ध होते हैं ।
स्पष्ट है कि कवि ने महाराजा अजीतसिंह का चित्रण अपेक्षाकृत अधिक सफलता के साथ किया है ।
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