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श्रीरंगजेब के मरते ही शाहजादों में तख्त के लिए तनातनी हुई और शाहजादा मुहम्मद मुअज्जम बहादुरशाह के नामसे भारतका बादशाह बन गया । उसने श्रामेर नरेश जयसिंहसे राज्य छीन कर उसके छोटे भाई विजयसिंहको दे दिया क्योंकि विजयसिंह उसके पक्षका था । जब बादशाह बहादुरशाहको मालूम हुआ कि अजीतसिंहने जोधपुर पर अधिकार कर लिया है तो वह यवन दलके साथ अजमेरकी ओर रवाना हुआ। इस समय राज्यच्युत ग्रामेर नरेश जयसिंह भी उसके साथ था। महाराज अजीत सिंह और बादशाह में मेड़ते में संधि हो गई जिसमें बादशाहने महाराजा और उनके पुत्रोंका बहुत सत्कार किया, उन्हें उपहार भेंट किये और उपाधियोंसे सम्मानित किया ।
बादशाह जल्दी ही मारवाड़ में शान्ति स्थापित कर के दक्षिणकी अशान्तिको दबाने के लिए चल पड़ा। उस समय राजा जयसिंह महाराजा अजीतसिंह, दुर्गादास आदि उनके साथ थे । यद्यपि बाहशाह ऊपरसे तो महाराजा अजीतसिंह पर खुश नज़र आता था तथापि उसने जोधपुरका प्रबन्ध करने के बहाने काजमखाँ और मेहराबखाँको भेज कर जोधपुर पर चुपचाप अपना अधिकार कर लिया । जब इसकी सूचना महाराजा श्रजीतसिंहको मिली तो वे बहुत क्रुद्ध हुए किन्तु परिस्थितिवश उन्हें चुप रहना पड़ा । जयसिंह और दुर्गादास के साथ महाराजाने चुपचाप बादशाहका साथ छोड़ दिया और तीनों उदयपुर जाकर महाराणा अमरसिंह से मिले। वहां पर उनका बहुत सत्कार हुआ ।
लौट कर महाराणा और अजीतसिंहने अपने योद्धाओं सहित जोधपुर पर आक्रमण कर दिया। फौजदार मेहराबखाँ किला छोड़ कर भाग गया और जोधपुर पर पुनः महाराजाका अधिकार हो गया । महाराजा अपने उत्साहसे आगे बढ़ते गये। वे सांभर और डीडवानाको विजय कर के श्रामेरकी ओर बढ़े । वहाँके फौजदार सैयद हुसैनखाँको परास्त किया । महाराजा अजीतसिंहने जयसिंहको, जो उनके साथ था, पुनः आमेरका राजा बना दिया । सांभरके बराबर दो भाग कर के आधा आमेरकी ओर तथा प्राधा मारवाड़ राज्य में मिला दिया और स्वयं अपनी राजधानी जोधपुर लौट आये ।
कुछ समय बाद साँभरमें पुनः शाही फौजोंका जमाव होने पर जोधपुर और आमेरकी फौज ने श्राक्रमण कर दिया । यह युद्ध बड़ा भयंकर हुआ । इसमें जोधपुरका भीम कूंपावत मारा गया। अंतमें राजपूतोंकी विजय-दुन्दुभि बजी और महाराजा अजीतसिंहजी जोधपुर लौट आये ।
राजपूतों की इस विजयकी खबर जब बादशाह बहादुरशाहने सुनी तो वह
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