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चारों ओर मारकाट और लूट-खसोट करने लगे। वे अवसर मिलते ही मुगलोंकी चौकियों पर टूट पड़ते और ध्वस्त कर देते। यही नहीं, मुगलोंकी रसद लूट लेते थे और उन्हें हर प्रकारसे तंग करने लगे। उन्होंने ऐसी विकट परिस्थिति उत्पन्न कर दी कि मुगलोंको हर समय चौकन्ना रहना पड़ता था।
महाराजा अजीतसिंहका गुप्त रूपसे लालन-पालन होता रहा और जब कुछ योग्य हुए तो राठौड़ोंने उन्हें अपना अग्रणी बनाया। इनका बल दिनप्रतिदिन बढ़ता जाता था और इन्होंने मारबाड़में यत्र-तत्र मुगलोंको दबा कर उनसे कर वसूल करना शुरू कर दिया।
उस समय जोधपुरका सूबेदार शुजाअतखां था। वह लश्करिखाँको जोधपुरका प्रबन्ध सौंप कर गुजरात गया। इधर महाराजा अजीतसिंहजी अपने दलबल सहित पाडावलाकी ओर गये। लश्करिखाने महाराजाका पीछा किया और कुरमालकी घाटीमें युद्ध किया किन्तु परास्त होकर भाग गया।
इस समय उदयपुरके महाराणा जयसिंह और उनके पुत्र अमरसिंहमें गृह-कलह हो गया । महाराणाने उस संकटको टालनेके उद्देश्यसे अपने छोटे भाई गजसिंहकी पुत्रीका विवाह महाराजा अजीतसिंहसे कर दिया।
महाराजाने होटलूके चौहान चतुरसिंहकी कन्यासे भी विवाह किया था जिसके गर्भसे जालोरमें संवत् १७५६ मार्गशीर्ष वदि १४को शोभनयोग, शकुनिकरण, मिथुनलग्न और विशाखा नक्षत्रमें महाराजकुमार अभयसिंहका जन्म
हुआ।
महाराजा अजीतसिंहने अपनी शक्तिसे मुगलोंके नाकमें दम कर रखा था। उन्होंने दक्षिण में औरंगजेबकी मृत्युका समाचार सुनते ही अपनी सेना लेकर जोधपुर पर आक्रमण कर दिया। जाफरकुलीने पहले तो महाराजाका सामना किया किन्तु प्रबल राठौड़वाहिनीको देख कर वह किला छोड़ कर भाग गया। यवन इतने भयभीत हए कि वे अपनी जान बचानेके लिए दाढ़ी मुंडवा कर हाथमें माला-लेकर सीतारामका उच्चारण करते हुए जोधपुरसे भागे । कई राठौड़ों द्वारा कैद कर लिये गये । महाराजाने अपने पैतृक राज्यमें प्रवेश किया। राजधानी, जो यवनोंसे दलित हो गई थी, गंगाजल आदि छिड़क कर शुद्ध की गई। मंदिरोंके स्थान पर मस्जिदें बन गई थी और इनमें मुल्लोंकी बांगें गूंजती थीं, उनके स्थान पर वापिस मंदिर बन गये और शंखों व घटोंकी ध्वनि गूंजने लगी। बड़े ठाटबाटसे महाराजा अजीतसिंह राजसिंहासन पर आसीन हुए।
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