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________________ १७२ नन्दी-चूलिकासूत्रं गहणमागच्छंति नो संखिज्जसमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति असंखिज्जासमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति, से तं पडिबोहगदिट्ठतेणं। । से किं तं मल्लगदिढतेणं?, मल्लगदिट्ठतेणं से जहानामए केइ पुरिसे आवागसोसाओ मल्लगं गहाय तत्थेगं उदगबिंदु पक्रोविज्जा, सेनटे, अन्नेऽवि, पक्खित्ते सेऽविनतु, एवं पविखप्पमाणेसु पविखप्पमाणेसु होही से उदगबिंदू जे णं तं मल्लगं रावेहिइत्ति, होही से उदगबिंदू जेणं तंसि मल्लगंसि ठाहिति होही से उदगबिंदू जे णं तं मल्लग भरिहिति होही से उदगबिंदू जे णं तं मल्लग पवाहेहिति, एवामेव पक्खिप्पमाणेहिं पक्खिप्पमाणेहिं अनंतेहिं पुग्गलेहिं जाहे तं वंजणं पूरिअं होइ ताहे हुंति केरइ, नो चेवणं जाणइ केवि एस सद्दाइ ?, तओ ईहं पविसइ तओ जाणइ अमुगे एस सदाइ, तआ अवायां पविसइ, तओ से उवगयं हवइ, तओणं धारणं पविसइ, तओणं धारेइ संखिज्जं वा कालं असंखिज्जं वा कालं। से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं सदं सुणिज्जा तेणं सहोत्ति उग्गहिए, नो चेवणं जाणइ के वेस सदाइ तओईह पविसइ तओ जाणइ अमुगे एस सद्दे तओणं अवायं पविसइ तओ से उवगयं हवइ तओ धारणं पविसइ तओ णं धारेइ संखेज्जं वा कालं असंखेज वा कालं। से जहानामए केई पुरिसे अव्वत्तं रूवं पासिज्जा तेणं रूवत्ति उग्गहिए नो चेवणं जाणइ के वेस रूचति तओ ईंहं पविसइ तओ जाणइ अमुगे एस रूवेति तओ अवायं पविसइ तओ से उवगयं हवइ तओ धारणं पविसइ तओ णं धारेइ संखेजं वा कालं असंखिज्जं वा कालं। से जहानामए केई पुरिसे अव्वत्तं गंधं अग्घाइज्जा तेणं गंधति उग्गहिए नो चेवणं जाणइ के वेस गंधेति तओ ईहं पविसइ तओ जाणइ अमुगे एस गंधे तओ अवायं पविसइ तओ से उवगयं हवइ तओ धारणं पविसइ तओ णं धारेइ संखेजंवा कालं असंखेज्जंवा कालं। से जहानामए केई पुरिसे अव्वत्तं रसं आसाइज्जा तेणं रसोति उग्गहिए नो चेवणं जाणइ के वेस रसेत्ति तओ ईहं पविसइ तओ जाणइ अमुगे एस रसे तओ अवायं पविसइ तओ से उवगयं हवइ तओ धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ संखिजं वा कालं असंखिजज्जजंवा कालं। से जहानामए केई पुरिसे अव्वत्तं फासं पडिसंवेइज्जा तेणं फासेत्ति उग्गहिए नो चेव णं जाणइ के वेस फासओत्ति तओ ईहंपविसइतओ जाणइ अमुगे एस फासे तओ अवायं पविसइ तओ से उगवयं हवइ तओ धारणं पविसइ तओ णं धारेइ संखेज्जं वा कालं असंखेज्जं वा कालं। से जहानामए केई पुरिसे अव्वत्तं सुमिणं पासिज्जा तेणं सुमिणोत्ति उग्गहिए नो चेव गं जाणइ के वेस सुमिणेत्ति तओ ईहं पविसइ तओ जाणइ अमुगे एस सुमिणे तओ अवायं पविसई तओ से उवगयं हवइ तओ धारणं पविसइ तओ धारेइ संखेज्जं वा कालं असंखेन्जं वा कालं। से तं मलगदिटुंतेणं। व.एवं अट्ठावीसे'त्यादि, एवम्' उक्तेन प्रकारेणाष्टाविंशतिविधस्य, कथमष्टाविंशतिविध-- तेति, उच्यते, चतुर्द्धा व्यञ्जनावग्रह: षोढा अर्थावग्रह: षोढा ईहा षड्विधोऽपाय: षोढा धारणा इत्यष्टाविंशतिविधता, एवमष्टाविंशतिविधस्याभिनिबोधिकज्ञानस्य सम्बन्धी यो व्यञ्जनावग्रहः तस्य स्पष्टतरस्वरूपप्रतिज्ञापनाय प्ररूपणां करिष्यामि। कथं ? इत्याह-प्रतिबोधकदृष्टान्तेन मल्लकदृष्टान्तेन च, तत्र प्रतिबोधयतीति प्रतिबोधक: For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003382
Book TitleAgam Sutra Satik 44 Nandisootra ChulikaSutra 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Shrut Prakashan
Publication Year2000
Total Pages265
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 44, & agam_nandisutra
File Size6 MB
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